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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २८६ (१८८१८ - १२ - १६५२८ चित्रशाला संस्करण ) में भी ऐसा आया है । याज्ञवल्क्यस्मृति ( ३।१६८ - २०१) ने संक्षेप में ही आसन से लेकर धारणा एवं ध्यान तक के अंगों का उल्लेख किया है, यथा- 'योगी को न अधिक उच्च और न अधिक नीचे आसन पर विराजमान होकर, अपने पाँवों को उत्तान करके दोनों जाँघों पर रखकर एवं बायीं हथेली ( जो उत्तान दाहिने पाँव पर रखी हुई है) पर दूसरी ( दायीं ) हथेली ( जो उत्तान है) को रखकर, मुख को थोड़ा ऊपर रखकर एवं शरीर को छाती से मिलाकर, आँखें बन्द करके, रज एवं तम से छुटकारा पाकर, ऊपरी एवं निचली दन्तपंक्तियों को पृथक्-पृथक् रखकर, जिह्वा को तालु में सटाकर, शरीर में किसी प्रकार का कम्पन न लाकर ( अर्थात् शरीर को निश्चल रखकर ), मुख को बन्द कर, इन्द्रियों को विषयों से दूर रखकर, दो प्रकार का या तीन प्रकार का २४ या ३६ मात्राओं वाला प्राणायाम करना चाहिए, उस प्रभु की, जो हृदय में दीप के समान स्थित है, चिन्ता करनी चाहिए ( अर्थात् ध्यान करना चाहिए ) तथा उस प्रभु में धारणा के रूप में चित्त को लगाना ( टिकाना ) चाहिए।' देवल का कथन है कि शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि एवं आत्मा का निरोध करना ही धारणा है ( अपराकं पृ० १०२५ एवं कृत्यकल्प०, मोक्ष०, पृ० १७४ द्वारा उद्धृत ) । जिसकी चिन्तना की जाय उस विषय के परिज्ञान की एकाग्रता ( निरन्तर प्रवाह अथवा चलते रहने वाली स्थिति) ही, जिसमें किसी अन्य भावना या परिज्ञान का अभाव हो ध्यान है । उपनिषदों ने ध्यान पर बल दिया है, यथा -- माण्डूक्योपनिषद् ( २२६ ) में आया है - 'ओम् के रूप में आत्मा का ध्यान करो; बृ० उप० (२1४ ) में प्रसिद्ध वचन है-- 'आत्मा द्रष्टव्य ( देखे जाने योग्य) है, श्रोतव्य ( सुने जाने योग्य) है, मन्तव्य ( समझा जाने वाला) एवं निदिध्यासितव्य (जिसकी चिन्तना की जाय ) है ।' छा० उप० । ( ७।६।२ ) में ध्यान शब्द 'एक ही विषय पर सभी विचारों को केन्द्रित करने' के अर्थ में प्रयुक्त है । ९ श्वेताश्वतरोपनिषद् ( १ ३ ) एवं गीता ( १८।५२ ) ने ध्यानयोग का उल्लेख किया है । और देखिए शान्ति० ( १८८|१३ = १६५ | १३-१८ चित्रशाला ), देवलधर्म सूत्र ( कृत्यकल्प०, मोक्ष०, पृ० १८१), विष्णुपुराण (६ | ७१६१,' वाचस्पति, कृतकल्प०, मोक्ष० पृ० १७५) । अपरार्क ( पृ० १०२५-२७ ) ने विष्णुधर्मसूत्र के अध्याय ६७ से उद्धरण दिया है, जिसमें कहा गया है कि योगी को उस सर्वज्ञ, विभु एवं सर्वशक्तिमान् प्रभु का ध्यान करना चाहिए, जो तीनों गुणों ( सत्त्व, रज एवं तम) से हीन है, २४ तत्त्वों के ऊपर है, जो इन्द्रियातीत है और यदि वह एक बार रूपहीन प्रभु पर ध्यान लगाने में असमर्थ हो तो उसे क्रमशः पृथिवी एवं अन्य तत्त्वों, मन, बुद्धि, आत्मा, अव्यक्त से ऊपर उठना चाहिए; यदि वह इतना भी न कर सके तो उसे उस व्यक्ति का ध्यान करना चाहिए जो उसके हृदय (कमल) में दीप के समान है; यदि यह असम्भव हो तो उसे उस वासुदेव का ध्यान करना चाहिए जिसकी छाती ( वक्ष ) पर वनमाला है, जिसके हाथों में शंख, चक्र, गदा एवं पद्म हैं । विष्णुधर्मसूत्र ने इतना ६६. आत्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । बृह० उप० (२|४|५); ओमित्येवं ध्यायथ आत्मानम् । मुण्डक० (२२२४६) । नि के साथ ध्यै मिलकर निदिध्यासितव्य बना है । छा० उप० (७।६।२ ) में आया है --ध्यानं वाव चित्ताद् भूयः । ध्यायतीव पृथिवी ध्यायन्तीव देवमनुष्याः, तस्माद्य इह मनुष्याणां महत्तां प्राप्नुवन्ति ध्यानापादांशा इवैव ते भवन्ति । .. ध्यानमुपास्स्वेति । पृथिवी उसी प्रकार गतिहीन है जिस प्रकार गम्भीर ध्यान में एक योगी निश्चल ( गतिहीन) रहता है, और इसी से ऐसा कहा गया है : 'पृथिवी मानो ध्यान में मग्न है।' ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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