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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २६१ २ ये तीनों (धारणा, ध्यान एवं समाधि ) प्रत्यक्ष सहायक हैं, किन्तु असंप्रज्ञात समाधि में परोक्ष रूप से सहायक हैं, क्योंकि यह इनके अभाव में भी हो जाती है। हठयोगप्रदीपिका (४७) में आया है - - ' समाधि वह कहलाती है जबकि जीवात्मा एवं परमात्मा में ऐक्य स्थापित हो जाता है और सभी संकल्पों का लोप हो जाता है ।' सबीज एवं निर्बीज समाधि सविकल्प एवं निर्विकल्प समाधि के सदृश ही है, जैसा कि वेदान्तसार द्वारा परिभाषित है । संप्रज्ञात समाधि की चार कोटियाँ हैं, यथा--सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार एवं निविचार । देखिए इस अध्याय की पाद-टिप्पणी सं० ३१ 'गौ' शब्द के द्वारा निर्देशित 'गौ' नामक वस्तु एवं धारणा या भावना (ज्ञान) कि 'यह गो हैं, वास्तव में तीन पृथक् विषय हैं, किन्तु उनका मिश्रित भास होता है । यदि कोई योगी किसी विषय पर एकाग्र होता है और उसकी बुद्धि इन उपर्युक्त तीन बातों से सचेत है तो यह सवितर्क समाधि कही जायगी ( योगसूत्र ११४२ ) । अन्य प्रकारों के लिए देखिए पाद-टिप्पणी ३१ एवं नीचे । असंप्रज्ञात समाधि में योगी के अन्दर अन्तिम सत्ता उदित होती है, प्रकृति उसे किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करती, उसका आत्मा स्वयं अपने में स्थित रहता है और व्यक्तित्व के विषय में सचेत भी नहीं रहता और न आनन्द की ही अनुभूति करता है, सब कुछ चित् या चित्शक्ति होती है और कुछ नहीं । हम यहाँ पर समाधि की विभिन्न अवस्थाओं का विशद विवेचन नहीं करेंगे, क्योंकि हमारा सम्बन्ध है धर्मशास्त्र पर होने वाले योग के प्रभाव से, न कि योग सम्बन्धी विस्तृत विवेचन से । गोरक्षशतक में समाधि की अन्तिम अवस्था का वर्णन इस प्रकार है-'समाधि में समायुक्त योगी को गन्ध, रस, रूप, स्पर्श या स्वर का भास नहीं होता और न उसे अपने एव अन्यों में कोई अन्तर दीखता है; ब्रह्मवित् लोग इसे निर्मल, निश्चल, नित्य, निष्क्रिय, निर्गुण, विशाल व्योम के समान विस्तृत, विज्ञान एवं आनन्द समझते हैं; योगवित् परम पद में उस नित्य अद्वयता को प्राप्त होता है, जैसा कि दुग्ध में दुग्ध, घृत में घृत एवं अग्नि में अग्नि डालने से ऐक्य होता है । '७३ यह द्रष्टव्य है कि धारणा, ध्यान एवं समाधि में जो प्रमुख बल लगाया जाता है वह मानसिक है । बाह्य दशाएँ अभ्यास में अवश्य सहायक होती हैं, किन्तु हैं वे गौण ही । जैसा कि हमने ऊपर देख लिया है, शौच, सन्तोष, तप, ब्रह्मचर्य, कुछ सरल आसन, वैराग्य, भोजन के विषय में उसके गुण एवं मात्रा सम्बन्धी रोक—ये सब मुख्य बाह्य या शारीरिक दशाएँ हैं । धारणा, ध्यान एवं समाधि के अभ्यास के साथ योगी कुछ अलौकिक शक्तियों (विभूतियों) का विकास कर सकता है, जिनकी उसे उपेक्षा करनी होती है, क्योंकि वे ध्येय की प्राप्ति में रुकावटें उत्पन्न करती हैं ( योगसूत्र ३।३६ ) । ऐसा पतञ्जलि का कथन है, किन्तु अधिकांश योगियों की दृष्टि में सिद्धियाँ योग के महत्त्वपूर्ण अंग हैं और योगसूत्र के १६५ सूत्रों में ३५ सूत्र ( ३।१६ - ५० ) सिद्धियों ७२. तत्समं च द्वयोरैक्यं जीवात्मपरमात्मनोः । प्रनष्ट सर्वसंकल्पः समाधिः सोऽभिधीयते ॥ ह० यो० प्र० (४।७ ) । और देखिए स्कन्द० ( काशीखण्ड, ४७।१२७), जहाँ यही बात दी गयी है । ७३. न गन्धं न रसं रूपं न स्पर्श न च निःस्वनम् । आत्मानं न परं वेत्ति योगी युक्तः समाधिना ॥ निर्मलं निश्चलं नित्यं निष्क्रियं निर्गुणं महत् । व्योम विज्ञानमानन्दं ब्रह्म ब्रह्मविदो विदुः ॥ दुग्धे क्षीरं घृते सपिरग्नौ वह्निरिवापितः । अद्वयत्वं व्रजेन्नित्यं योगवित्परमे पदे ॥ गोरक्षशतक ( श्लोक ६७, ६६ - १०० ) । प्रथम श्लोक हठयोग - प्रदीपिका (४।१०८) में भी है। मिलाइए श्वेताश्वतरोपनिषद् ( ६।१६) 'निष्कलं निष्क्रियं'; कठोपनिषद् ( ३।१५ ) : अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं ; विज्ञानमानन्दं ब्रह्म, वृह० उप० (३२६ २८ ) एवं श्वेताश्व० उप० ( १ १ १५ ) : तिलेषु तैलं... चाग्निः' एवं 'दुग्धे क्षीरं... आदि ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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