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________________ तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र " १३ प्रसन्न होकर मनुष्यों की सभी कामनाएँ पूर्ण करती हैं । १९ बाणभट्ट की कादम्बरी में उज्जयिनी से कुछ दिनों के मार्ग पर अवस्थित चण्डिका के मन्दिर का एक लम्बा वर्णन है, जहाँ पर एक बूढ़ा, द्रविड़ भक्त रहता था । इस वर्णन की कुछ बातें यों हैं 'पशुओं के मुण्डों की आहुतियाँ, वाहन के रूप में सिंह, महिषासुर की बलि, पाशुपतों के सिद्धान्त जो ताड़पत्र पर लिखे छोटे-छोटे ग्रन्थों के रूप में थे, जिनमें तन्त्र, मन्त्र, जादू लिखित थे, दुर्गा-स्तोत्र ( एक वस्त्र खण्ड पर लिखित), माताओं के जीर्ण-शीर्ण मन्दिर, द्रविड़ भक्त का वर्णन जो श्रीपर्वत के विषय में सहस्रों कथाएँ जानता था ।' बाण ने पुत्र की इच्छा रखने वाली रानी विलासवती की धार्मिक क्रियाओं का उल्लेख किया है, यथा- चण्डिका के मन्दिर में शयन करना, जहाँ लगातार गुग्गुल जल रहा था, राहों पर अमावस्या की रात्रि में स्नान करना, जहाँ जादूगरों द्वारा ऐन्द्रजालिक वृत्त खिंचे हुए थे, माताओं के मन्दिरों में जाना, रक्षाकरंड धारण करना जिसके भीतर भूर्ज पत्रों पर पीले रंग से मन्त्र लिखे हुए थे; और जब प्रसव का समय सन्निकट आ गया तो बिस्तर को भाँति-भाँति की जड़ी-बूटियों एवं यन्त्रों (चित्र या अंक) से शुद्ध किया गया। हर्षचरित ( ३ ) में जादू के वृत्तान्तों एवं मानव - वलियों की चर्चा हुई है। शैव साधु भैरवाचार्य को शिव-संहिताएँ स्मरण थीं, उसने महाकालहृदय नामक महामन्त्र का जप एक श्मशान में एक करोड़ बार किया था। वह उस मन्त्र में पूर्णता प्राप्त करने के लिए पुण्यभूति (सम्राट् हर्ष के एक पूर्व पुरुष) की सहायता चाहता था और बेताल को हराना चाहता था । अन्त में वह विद्याधर की स्थिति को प्राप्त हो गया और नक्षत्रमण्डल में ज्योतिर्मान् हो गया । हर्षचरित की भूमिका के अन्तिम श्लोक में हर्ष को श्लेषात्मक ढंग से श्रीपर्वत कहा गया है, जो शरणागतों की इच्छाओं के अनुसार सभी सिद्धियों को देने वाला है । बाण के ग्रन्थों के ये विवरण प्रकट करते हैं कि किस प्रकार ७वीं शती के बहुत पहले से मांस के साथ चण्डी की पूजा, मन्त्रों के शाक्त या तान्त्रिक उपकरण, सिद्धियाँ, मण्डल एवं यन्त्रों ने धनी एवं दरिद्र तथा बड़े एवं छोटे सभी प्रकार के भारतीय लोगों के मनों को अभिभूत कर रखा रखा था । मालतीमाधव (अंक ५) में हम चामुण्डा के लिए मानव बलि का दारुण चित्र पाते हैं । उसी नाटक में सौदामिनी का उल्लेख हुआ है जिसने श्रीपर्वत पर एक कापालिक के व्रतों (नियमों) का पालन किया है और मन्त्रों के बल से अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त की हैं। वनपर्व ( ८५।१६ - २० ) में श्रीपर्वत को शिव एवं देवी का पवित्र स्थल कहा गया है। सुबन्धु की वासवदत्ता में श्री पर्वत को 'सन्निहित मल्लिकार्जुनः' कहा गया है। आगे चलकर संस्कृत एवं पालि साहित्य से उद्धरण देकर यह प्रदर्शित किया जायेगा कि किस प्रकार तान्त्रिक प्रयोगों से धर्म का नाम कलंकित किया गया और घोर अनैतिकता को बढ़ावा मिला । तन्त्रों का साहित्य बहुत विशद् है (देखिए 'प्रिंसिपुल्स आव तन्त्र' ए० एवालोन द्वारा सम्पादित, भाग १, पृ० ३६०-३६८ जहाँ तन्त्रों की एक लम्बी सूची दी हुई है ) । हिन्दू एवं बौद्ध लेखकों ने तन्त्र पर बहुत से ग्रन्थ लिखे और उन ग्रन्थों में बहुत से विषय सम्मिलित हो गये । कुछ रूपों में हिन्दू एवं बौद्ध तन्त्र समान हैं, किन्तु विषयों के विवरण, दार्शनिक सिद्धान्तों एवं धार्मिक तत्वों तथा प्रयोगों में दोनों एक-दूसरे से १६. एतत्सर्वमिदं विश्वं जगदेतच्चराचरम् । पर ब्रह्मस्वरूपस्य विष्णोः शक्तिसमन्वितम् ॥ विष्णुपु० (५॥ ७/६०); सुरायां सोपहारंश्च भक्ष्यभोज्यंश्च पूजिता । नृणामशेष कामास्त्वं प्रसन्ना सम्प्रदास्यसि ॥ विष्णु पु० (५॥ ११८६) । यह श्लोक ब्रह्मपुराण (१८१।५२ ) में भी आया है और पीछे के तीनों श्लोकों जिनमें दुर्गा के नाम आये हैं। दोनों में पाये जाते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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