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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास एवं नृसिंहपूर्वोत्तरतापनी नामक उपनिषदों से व्यक्त होता है (वामकेश्वर तन्त्र पर सेतुबन्ध ; पृ० ४) । इसी प्रकार भास्कराचार्य ने वामकेश्वरतन्त्र पर अपनी सेतुबन्ध नामक टीका में कई उपनिषदों का उल्लेख किया है जो महात्रिपुरसुन्दरी की भक्ति पर विस्तार के साथ उल्लेख करती है। उन्होंने ऋ० (५॥४७॥ ४) में आये हुए ‘चत्वारि ईम्' अंश में 'कादिविद्या' का संकेत देखा है । किन्तु ये उपनिषदें, ऐसा लगता है, तन्त्रों को आलम्बन देने के लिए (क्योंकि वे अनादृत हो चले थे) प्रणीत हुई और उनका उल्लेख राघवभट्ट एवं भास्कराचार्य जैसे मध्यकालीन लेखकों ने ही किया है। महाभारत में दुर्गा को सम्बोधित दो स्तोत्र हैं, यथा-विराटपर्व (अध्याय ६) में युधिष्ठिर द्वारा तथा दूसरा भीष्म पर्व (अध्याय २३) में अर्जुन द्वारा, किन्तु इन दोनों स्तोत्रों को लोग क्षेपक मानते हैं ।१७ विश्ववर्मा के गंगाधर शिलालेख (मालव सं० ४८०-४२४ ई० ) में माताओं एवं तन्त्र का उल्लेख है ।१८ बृहत्संहिता (५७१५६) ने माताओं के दलों का उल्लेख किया है । वृद्धहारीतस्मृति (११।१४३) में आया है कि गुहस्थ को शव, बौद्ध स्कान्द एवं शाक्त सम्प्रदायों के स्थलों में प्रवेश नहीं करना चाहिए। विष्णुपुराण (जो प्राचीन विद्यमान पुराणों में एक है) ने सम्पूर्ण विश्व को विष्णु का विश्व कहा है और विष्णु को परम ब्रह्म एवं शक्ति से समन्वित माना है । इस पुराण ने दुर्गा के कुछ नाम गिनाये हैं, यथा--आर्या, वेदगर्भा, अम्बिका, भद्रा, भद्रकाली, क्षेमदा, भाग्यदा और अन्त में कहा है कि जब दुर्गा की पूजा मद्य, मांस, विभिन्न प्रकार के भोजन आदि से की जाती है तो वह १७. जे० आर० ए० एस० (१६०६, पृ० ३५५-३६२) में बी० सी० मजूमदार ने यह प्रदर्शित करने का प्रयास किया है कि दुर्गा के ये दो स्तोत्र महाभारत में क्षेपक मात्र हैं और सम्भवतः सम्भलपुर के पास रहने वाले ओड़िया भाषा बोलने वाले अनार्य शूद्रों के आचारों पर आधारित हैं। किन्तु वे भूल जाते हैं कि अन्य आधारों के अतिरिक्त कालिदास (४०० ई० के पश्चात् के नहीं) ने पार्वती को अपने कतिपय ग्रन्थों में उमा, अपर्णा, खुर्गा, गौरी, भवानी एवं चण्डी कहा है और शिव के अर्धनारीश्वर रूप का उल्लेख किया है । शाकुन्तल के अन्तिम श्लोक में कालिदास ने शिव को 'परिगतशक्तिः' कहा है, जिससे यह प्रकट होता है कि उनके काल में पश्चात्कालीन शक्ति-पूजा के बीज उपस्थित थे। अतः दुर्गा-पूजा अपने कतिपय रूपों में ३०० ई. से कम-से-कम सौ वर्ष पुरानी है। १८. मातृणां च प्रमुदितघनात्यर्थनिदिनीनां तन्त्रोद्भूतप्रबलपवनोद्वतिताम्भोनिधीनाम् । गुप्तशिलालेख, संख्या १७, पृ० ७२ । बृहत्संहिता (५७३५६) में माताओं की प्रतिमाओं के विषय में नियमों की व्यवस्था है-- 'मातृ गणः कर्तव्यः स्वनामदेवानुरूपकृतचिह्नः ।' विष्णुधर्मोत्तरपुराण (१२२२६) में बहुत-सी माताओं का उल्लेख है जिनमें काली एवं महाकाली भी हैं (फुल मिलाकर १८० माताएँ हैं)। देखिए हाल का ग्रन्थ, ई० ओ० जेम्स (लन्दन, १६५६) लिखित 'कल्ट आव दि मदर गॉडेसेज' जिसके ६६-१२४ तक के पृष्ठ भारत से सम्बन्धित हैं। देखिए डा. करमबेल्कर का निबन्ध 'मत्स्येन्द्रनाथ एण्ड हिज योगिनी कल्ट' (इण्डियन हिस्टॉरिकल क्वार्टरली, जिल्द ३१. पृ० ३६२-३७४, सन् १६३५), जिसमें यह व्यक्त है कि आदिनाथ (स्वयं शिव) मत्स्येन्द्रनाथ के गुरु थे और स्वयं मत्स्येन्द्रनाथ गोरक्षनाथ के गरु थे। मत्स्येन्द्रनाथ को तिब्बत में लुइपा कहा जाता है और वे४ सिदों में देखिए कनिंघम की आर्यालॉजिकल सर्वे रिपोर्ट, ६, जिसमें भेड़ाघाट के ६४ योगिनियों के मन्दिर का उल्लेख है। और देखिए बी० पी० देसाई का निबन्ध 'तान्त्रिक कल्ट इन एपिग्राफ्स' (ले० ओ० आर० , मद्रास, जिल्द १६, १० २८५-२५८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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