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धर्मशास्त्र का इतिहास
के शासनाधिकारी बनो, उसी प्रकार यह प्राण अन्य प्राणों का पृथक्-पृथक् कार्यक्षेत्र निर्धारित करता है । अपान को पायु (गुदा) एवं उपस्थ (जननेन्द्रिय) के अंगों में नियोजित करता है, प्राण मुख एवं नासिका से प्रवेश करके अपने को (राजा के समान) आँखों एवं कानों में प्रतिष्ठापित करता है, समान को मध्य में (अर्थात् प्राण एवं अपान के कार्यक्षेत्र के बीच में) अर्थात् नाभि में (प्रतिष्ठापित करता है), क्योंकि यही (समान ही) है जो दिये हुए (अग्नि में अर्थात् आमाशय में) भोजन को समान रूप से (सभी शरीर-मागों में) ले जाता है ।"५५
कैलण्ड, ड्युमाण्ट आदि, जो 'प्राण' शब्द को प्राचीन संस्कृत साहित्य में 'निःश्वास' (सांस बाहर निकालना) के अर्थ में प्रयुक्त मानते हैं, वे मुख्यत: शंकराचार्य की उस व्याख्या का आश्रय लेते हैं जो उन्होंने छान्दोग्योपनिषद् (१।३।३) पर की है । वे लोग शांकर भाष्य (छा० उप० १।३।३) के 'अन्तराकर्षति वायुम्' को श्वास लेने (उच्छ्वास) के अर्थ में लेते हैं; किन्तु उसका अर्थ यों भी हो सकता है-'वह शरीर के भीतर वायु खींचता है' (शरीर का भीतर का अर्थ है पेट में), और अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि कलण्ड, ड्यूमाण्ट आदि ने शंकराचार्य के शब्दों का जो अर्थ लगाया है वह स्वयं शंकराचार्य की उपनिषद् सम्बन्धी अन्य व्यास्याओं से मेल नहीं खाता, यथा-बृ० उप० (१३५॥३, ३।४।१), छा० उप० (३।१३।१-६), कठ० (१३), प्रश्न० (३१४-५)। शांकर भाष्य (बृ. उप० ११५॥३) में आया है'-'प्राण हृदय की क्रिया है जो मुख एवं नासिका में सञ्चालित होती है और वह इस नाम से इसलिए पुकारा जाता है क्योंकि इसका 'प्रणयन' होता है (अर्थात् यह आगे बढ़ाया जाता है); अपान अधोवृत्ति (नीचे जाने वाली क्रिया) है, जो नाभि से आरम्भ होता है और इसलिए ऐसा कहा जाता है कि यह 'मल-मूत्र' बाहर करता है ।' केवल शंकराचार्य ने ही नहीं, प्रत्युत उनके पूर्ववर्ती देवल के धर्मसूत्र ने भी ऐसी ही व्याख्या की है।
काले शरीरस्य बलप्रदानं व्यानव्यापारः। इसके उपरान्त सायण ने छान्दोग्योपनिषद् (१।३३) का सहारा लिया है-'यद्व प्राणिति स प्राणः यदपानिति सोऽपानः । अथ यः प्राणापानयोः सन्धिः स व्यानः । यो व्यानः सा वाक् । और देखिए तै० सं० (३।४।१।३-४) एवं प्रश्नोपनिषद् (३।४-५)।
५५. यथा समाडेवाधिकृतान् विनियुडवते । एतान् ग्रामानेतान् प्रामानधितिष्ठस्वेति । एवमेवष प्राण इतरान् प्राणान् पृथक् पृथगेव संनिधत्ते। पायूपस्थेऽपानम् । चक्षुःश्रोत्रे मुखनासिकाभ्यां प्राणः स्वयं प्रातिष्ठते मध्ये तु समानः। एष ह्येतद्धतमन्नं समं नयति । प्रश्नोपनिषद् (३।४-५)।
५६. छा० उप० (१॥३॥३)पर शंकराचार्य ने व्याख्या की है :-यद्वै पुरुषः प्राणिति मुखनासिकाभ्यां वायं बहिनिःसारयति स प्राणाख्यो वायोवृत्तिविशेषः। यदपानित्यपश्वसिति तान्या-मेवान्तराकर्षति वायुंसाऽपानाख्या वृत्तिः; और देखिए शांकरभाष्य (वे० सू० २।४।१२-पञ्चवृत्तिर्मनोवद् व्यपदिश्यते)-'प्राणः प्राग्वृत्तिरुच्छ्वासादिकर्मा। अपानोर्वाग्वृत्तिनिश्वासादिकर्मा । व्यानस्तयोः सन्धौ वर्तमानो वीर्यवत्कर्महेतुः। उदान ऊर्ध्ववृत्तिरुत्क्रान्त्यादिहेतुः । समानः समं सर्वेष्वङ्गषु योन्नरसान्नयतीति ।' गीता (४।२६) में आया है-'अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे। प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ॥' यहाँ दोनों शब्द विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हैं।
५७. अथ प्राण उच्चते । प्राणो मुखनासिकासञ्चार्या हृदयवृत्तिः प्रणयनात्प्राणः। अपनयनान्मत्रपुरीषादेरपानोऽधोवृत्तिः आनाभिस्थानः ' (बृ. उप० ११॥३ के भाष्य में)। प्रश्न० (३.५) के भाष्य में 'अपान' की व्याख्या यों है : 'अपानमात्मभेदं मत्रपुरीषाद्यपनयनं कुर्वस्तिष्ठति संनिधत्ते।' कठोप० (५॥३) के 'ऊध्य प्राणमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्यति' पर भाष्य यों है-ऊध्वं हृदयात्प्राणं प्राणवृत्ति वायुमुन्नयत्यूयं गमयति तथा अपानं प्रत्यगधो अस्यति
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