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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २८१ योगपद्धति में, जो उपनिषदों पर आघृत है, प्राण का अर्थ केवल सांस ही नहीं है, प्रत्युत और कुछ है। यह जीवनी शक्ति एवं उन शक्तियों का द्योतक है जो शरीर में वाणी, आँख, कान एवं मन में तथा विश्व में विभिन्न रूपों में विद्यमान हैं । इसकी अत्यन्त प्रत्यक्षीकरणयोग्य अभिव्यञ्जना मानवीय फेफड़ों की गति में परिलक्षित होती है । योगसूत्र ने योगाभ्यासी के समक्ष यह सिद्धान्त रखा है कि शरीर में प्राण के वैज्ञानिक संयमन से योगी मानव-चेतना एवं वाह्य विश्व में सामान्यतः न दिखाई पड़ने वाली शक्ति पर अधिकार पा सकता है। प्रमुख उपनिषदों में प्राणायाम शब्द नहीं आता।५० सूत्रों में इसका प्रयोग हुआ है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।१२।१४-१५) में आया है कि यदि गृहस्थ सूर्योदय के समय सोता रहे । उसे उस दिन (रात्रि तक) व्रत रखना एवं मौन रहना चाहिए । उसमें ऐसा भी आया है कि कुछ आचार्यों के कथनानुसार उसे प्रायश्चित्तस्वरूप प्राणायाम तब तक करते रहना चाहिए जब तक कि वह थक न जाय । गौतमधर्मसूत्र (११६१) में आया है कि जब छात्र अपने गुरु के समक्ष विद्याध्ययन के लिए बैठ जाय और उसके तथा गुरु के बीच से कुत्तों, सो, मेढ़कों, बिल्लियों के अतिरिक्त यदि कोई अन्य पशु पार कर जाय तो शिष्य को तीन प्राणायाम करने चाहिए और (प्रायश्चित्तस्वरूप) थोड़ा घी खा लेना चाहिए। इसी प्रकार उसमें (२३॥६ एवं २२) पुनः आया है कि यदि उसे किसी ऐसे व्यक्ति के मुख से, जिसने मद्य पी रखी है, गन्ध मिल जा तो उसे (प्रायश्चित्तस्वरूप) तीन प्राणायाम करने चाहिए और घृतप्राशन करना चाहिए और यदि वैदिक विद्यार्थी किसी अशुचि (चाण्डाल आदि) को देख ले तो उसे एक प्राणायाम करके सूर्य की ओर देखना चाहिए । इसी प्रकार बौधायनधर्मसूत्र (४०१४-११) ने कतिपय दोषों के लिए प्राणायामों की व्यवस्था दी है। उपर्युक्त उदाहरणों से यह व्यक्त होता है कि सूत्रों (ईसा से कई शतियों पूर्व) के काल में प्राणायाम की धारणा का इतना विकास हो चुका था कि समाज द्वारा भर्त्सना किये जाने वाले कर्मों के लिए धार्मिक कृत्यों एवं प्रायश्चित्तों के रूप में प्राणायाम का उपयोग होने लगा था। उन दिनों प्राणायाम एक धार्मिक कृत्य-सा था न कि योग के आठ अंगों में उसकी परिगणना होती थी। वैदिक साहित्य में पाँच प्राण परिगणित थे, किन्तु पुराणों तथा अन्य मध्यकालीन ग्रन्थों में विभिन्न नामों वाले पांच अन्य प्राण सम्मिलित कर लिये गये । क्षिपति यः इति वाक्यशेषः । इससे स्पष्ट होता है कि भाष्य में 'प्राण' का अर्थ है 'सांस लेना या कण्ठ की सांस, और 'अपान' का अर्थ है 'पेट की वाय या हवा को बाहर करना।' तत्र ऊध्वं नाभेगतो रेचनोच्छ्वासक्षरणोद्गरकर्मा प्राणः । अघो नाभरुत्सर्गानन्दकर्माऽपानः । देवल (कृत्यकल्पतरु द्वारा उद्धत, मोक्षकाण्ड, पृ० १७०)। वनपर्व (२१३।७-चित्रशाला प्रेस संस्करण) में आया है-'बस्तिमूलं गुदं चैव पावकं समुपाश्रितः । वहन् मूत्रं पुरोष बाप्यपानः परिवर्तते ॥' ५८. एक श्लोक में दस प्राचीन एवं मुख्य उपनिषदें इस प्रकार उल्लिखित हैं-'शि-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड. माण्डूक्य-तित्तिरि । ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा ॥' ५६. प्राणोऽपामः समानश्च उदामो ध्यान एव च । नागः कूर्मस्तु कृकलो देवदत्तो धनञ्जयः ॥ उद्गारे नाग आख्यातः कर्म उम्मीलने तु सः । कृकलः क्षुतकार्ये च देवदत्तो विजाभणे ॥ धनञ्जयो महाघोषः सर्वगः स मतेपि हि । इति यो वशवायूनां प्राणायामेन सिध्यति ॥ लिंगपुराण (१८६१, ६५-६६) । मिलाइए योगयाज्ञवल्य (४१६४. ७१, भी दीवामनी सारा सम्पादित) कहाँ रस वायुमों एवं उनकी क्रियाओं का उल्लेख है। वनपर्व (२१२।१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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