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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २७६ हैं। तै० सं० (११७६२) में 'प्राण', 'अपान' एवं 'व्यान' नामक तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं। अथर्ववेद (८1११) में 'प्राणाः' एवं 'अपानाः' को बहुवचन में प्रयुक्त किया गया है। इन दोनों के अतिरिक्त 'असु', 'प्राण' एवं 'आयुः' (८1१३) का भी प्रयोग हुआ है। सम्भवतः इन पाँचों का अर्थ 'जीवन' (प्राण) ही है। उपनिषदों में प्राण सभी जीवों की प्रमुख शक्ति का रूप धारण कर लेता है और ब्रह्म का प्रतिनिधि या प्रतीक हो जाता है। देखिए बृ० उप० (१।६।३ प्राणो वा अमृतं नामरूपे सत्यं ताभ्याम् अयं प्राणश्चन्नः), बृ० उप० (११५।२३) में जहाँ एक श्लोक उद्धृत है कि सूर्य प्राण से उदित होता है और प्राण में ही अस्त हो जाता है, ऐसा आया है-'तस्मादेकमेव व्रतं चरेत्, प्राण्याच्चवापान्याच्च, नेन्मा पाप्मा मृत्युराप्नवदिति', 'अर्थात् इसलिए व्यक्ति को एक ही व्रत लेना चाहिए, उसे उच्छ्वास एवं निःश्वास इस (भयपूर्ण) विचार के साथ लेना चाहिए कि दुष्ट मृत्यु मुझे पकड़ लेगी।' यही हमें प्राणायाम की महत्ता का सिद्धान्त दृष्टिगोचर हो जाता है। छान्दोग्योपनिषद् (५॥१८-२४) में कहा गया है कि भोजन के समय प्राण, व्यान, अपान, समान एवं उदान को पाँच आहुतियाँ दी जानी चाहिए (यथा-'प्राणाय स्वाहा' आदि) और जो व्यक्ति अग्निहोत्र एवं आहुतियों का सच्चा अर्थ जानता है वह सभी लोकों, जीवों एवं आत्माओं में इसे करता है। आज भी भोजन के पूर्व ब्राह्मण लोग इन आहुतियों का कृत्य करते हैं, केवल पांच के क्रम में अन्तर पड़ गया है। प्रश्नोपनिषद् (२०१३) में आया है-'यह सब जो तीनों लोकों में प्रतिष्ठापित है, प्राण के अधिकार के अन्तर्गत है।' छान्दोग्योपनिषद् (४।३।३) में भी प्राण के पांच नाम लिये गये हैं जो शरीर के विभिन्न भागों में अवस्थित होने के कारण प्राण, अपान, व्यान, समान एवं उदान कहे जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि ईसा की शती के बहुत पूर्व से ही पांच प्राणों की क्रिया के अन्तर का परिज्ञान लोगों को हो गया था। इस ग्रन्थ में उपनिषदों की प्राण-सम्बन्धी व्याख्या एवं विशद विवेचन में जाना आवश्यक नहीं है। 'प्राण' एवं 'अपान' के अर्थ के विषय में एक विवाद चलता रहा है। कैलण्ड, कीथ, ड्यूमाण्ट आदि के मतानुसार प्राचीन वैदिक साहित्य में प्राण का अर्थ या 'निःश्वास' (अर्थात् सांस निकालना)एवं अपान का 'उच्छवास' (सांस लेना), जो आगे चलकर सुधारा गया । दूसरी ओर अधिकांशतः सभी टीकाकारों, लेखकों तथा जी० डब्ल. ब्राउन, एडगर्टन आदि ने इसका उलटा प्रतिपादित किया है । प्रस्तुत लेखक दूसरे मत का समर्थन करता है , अर्थात 'प्राण' का अर्थ था और अब भी है 'साँस लेना' तथा 'अपान' का अर्थ है 'पेट की वायु' (जो बाहर निकलती है)। सभी विद्वान् इस विषय में एकमत हैं कि संस्कृत साहित्य में 'प्राण' एवं 'अपान' के अर्थ ये ही थे। विरोधी मत केवल इतना ही कहता है कि प्राचीन काल में (प्राचीन वैदिक काल में) ही 'प्राण' एवं 'अपान' के अर्थ थे क्रम से 'निश्वास' (सांस निकालना) एवं 'उच्छ्वास' (साँस लेना) । जहाँ तक सम्भव हो हमें ऐसा जानने का प्रयत्न करना चाहिए कि उपनिषदों के वचन हमारे अर्थ का ही समर्थन करते हैं। प्रश्नोपनिषद् (जो एक प्राचीन उपनिषद् है, किन्तु अत्यन्त प्राचीन उपनिषदों में नहीं है) में एक अति मनोरम एवं निश्चयात्मक वचन आया है-"जिस प्रकार राजा अपने कर्मचारियों की नियुक्ति यह कहकर करता है कि तुम लोग इन ग्रामों ५४. प्राणापानौ मे पाहि समानव्यानो मे पा[दानव्यानौ में पाहि । तै० सं० (११६॥३॥३) । इस पर सायण ने अपनी टीका में स्पष्ट एवं मनोरम टिप्पणी की है-एक एव वायुः शरीरगतस्थानभेदात् कार्यभेदाच्च प्राणादिनामभिभिद्यते। स्थानभेवः कश्चिदुक्तः। हृदि प्राणो गुदेऽपानः समानो नाभिसंस्थितः । उदानः कण्ठदेशस्थो व्यानः सर्वशरीरगः ॥ इति। उच्छवास-निश्वासौ प्राणव्यापारः। मलमूत्रयोरधःपातनमपानव्यापारः। भुक्तस्यानरसस्य शरीरे साम्येन नयनं समानण्यापारः। उद्गारहिक्काविश्वानन्यापारः । कृत्स्नासु शरीरनागेषु म्याप्य प्राणापानबत्योः सन्धि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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