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________________ २७८ धर्मशास्त्र का इतिहास पकाकर या पिण्याक (खली) खाना चाहिए, तैलयुक्त पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए, यदि वह यावक (अर्थात् कुल्माष या जौ का दलिया) पर ही रहे तब भी बलवान् रहेगा; उसे जल एवं दूध मिलाकर पीना चाहिए और गफाओं में निवास करना चाहिए। मार्कण्डेय (कृत्यकल्पतरु, १० १६७-१७७, मोक्ष खण्ड) में आया है-योगी को सूने स्थलों, वनों, गुहाओं में ध्यान का अभ्यास करना चाहिए; कोलाहलपूर्ण स्थानों में, अग्नि एवं जल के पास, पुरानी गोशालाओं में, चौराहों में, सूखी पत्तियों के ढूह के पास, नदी के तट पर, श्मशान में, जहां रेंगने वाले जीवों का निवास हो, भयंकर स्थानों में, कूप के पास, चैत्य (जहाँ चिता लगायी गयी हो) या दीमक के छूह पर योगाभ्यास नहीं करना चाहिए।' उसी पुराण में यह भी आया है कि उसे तब योगाभ्यास नहीं करना चाहिए जब पेट में वायु हो या वह भूखा हो या थका-माँदा हो या जब मन से अव्यवस्थित हो या जब अधिक शीत या उष्ण हो, तीक्ष्ण वायु-वेग हो। देवलधर्मसूत्र में व्यवस्था है कि योगी को योगाभ्यास देवतायतन (मन्दिर), खाली घर, गिरिकन्दरा, नदी-पुलिन (नदी की बालका-भूमि), गुफाओं या वनों तथा भयरहित पवित्र एवं शुद्ध स्थल में करना चाहिए।५२ हठयोगप्रदीपिका (१।६१) में भक्ष्याभक्ष्य का उल्लेख है। गोरक्षशतक में व्यवस्था है कि योगी को कट, अम्ल, लवण यक्त भोजन का त्याग करना चाहिए, उसे केवल दुग्ध भोजन पर रहना चाहिए। गीता में आया है-'जो अधिक खाता है, या पूर्ण उपवास करता है, वह योग में सफल नहीं हो सकता, योग उसके कष्ट को दूर करता है, जो उचित भोजन-व्यायाम करता है।' छान्दोग्योपनिषद् (७।२६।२) में, जहाँ सनत्कुमार नारद को वास्तविक तत्त्व के विषय में उपदेश करते हैं, आया है कि आहार की शुद्धता से मन की शुद्धता आती है (आहारशुद्धो सत्त्वशुद्धिः)। और देखिए अपरार्क (याज्ञ० १११५४, पृ० २२१)। प्राणायाम योग का वह अंग है जो आरम्भिक कालों से ही धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में आता रहा है। शाब्दिक रूप में इसका अर्थ है 'प्राण का नियन्त्रण या विराम।' इसके अन्य पर्याय हैं 'प्राणसंयम' (याज्ञ. १२२२) एवं 'प्राणसंरोध' । महत्त्वपूर्ण विवादवस्तु है-'प्राण' का अभिप्राय क्या है ? यह शब्द 'अन्' ( सांस लेना) घातु से निष्पन्न है और 'प्र' उपसर्ग पहले जोड़ दिया गया है, यथा-प्र+अन् । यह क्रिया एवं इसके रूप ऋग्वेद में आये हैं (१११०११५,१०।१२११३,१०।१२।४) । ऋग्वेद में कई स्थानों पर 'प्राण' का अर्थ केवल 'साँस लेना' है, यथा११६६।१, ३१५३।२१ एवं १०६६।६ में। ऋ० (१०६०।१३ 'प्राणाद्वायुरजायत') में ऐसा आया है कि आदिपुरुष के प्राण से वायु (हवा) प्रकट हुई। ऋग्वेद में 'असु' शब्द भी 'प्राण' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है (११११३॥१६॥ 'उधीध्वं जीवो असुन आगात्' एवं १।१६४।४) । 'प्राणन' (श्वास) एवं 'जीवन' दोनों ऋ० (१।४८।१०, जो उषा को सम्बोधित है) में आये हैं । सम्भवतः ऋ० (१०।१८६०२) में 'अपान' की ओर निर्देश है, यथा-'अन्तश्चरति रोचनास्य प्राणादपानती।' तैत्तिरीय संहिता (१।६।३।३) में प्राणों के पांच प्रकार जोड़े में आलिखित ५२. देवतायतनशून्यागारगिरिकन्दरनदीपुलिनगुहाख्यानाम्अन्यतमे शुचौ निराबाधे विभक्ते... मनसा तच्चित्तनं ध्यानम् । देवल (कृत्यकल्प०, मोक्ष, पृ० १८१)। मिलाइए श्वेताश्वतरोपनिषद् (२।१०)। ५३. कट्वाललवणत्यागी क्षीरभोजनमाचरेत्। गोरक्षशतक ( ५०); कट्वम्लतीक्ष्णलवणोष्णरीतशाकसौवीरतलतिलसर्षपमद्यमत्स्यान् । आजादिमासंदधितक्रकुलत्थकोलपिण्याकहिङगुलशनाथमपथ्यमाहः ॥ गोधूमशालियवषाष्टिकशोभनाघ्नं क्षीराज्यखण्डनवनीतसितामधूनि । शुंठीपटोलकफलादिकपंचशाकं मुद् गावि दिव्यमुवकं च यमोन्द्रपम्यम् ॥ पुष्टं सुमधुरं स्निग्धं गव्यं पातुप्रपोषणम् । मनोभिलषितं योग्यं मोगी भोजनमाचरेत् ॥ ह. यो०प्र० (६११६४-६५)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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