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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २७७ मूति है, प्रथम दिन में, जब कुण्डलिनी का जागरण हो गया तो ऐसा प्रतीत होता था कि मानो सम्पूर्ण शरीर अग्नि में हो, और उन्होंने समझा कि मैं मर रहा हूँ, और वे तीन मासों में कई मन दूध एवं घृत पी गये और दो निम्बवृक्षों की सारी पत्तियां खा गये । नाडियों एवं तन्त्रों के सिद्धान्त का बीज (मूल) कठोपनिषद् (६।१६) एवं छान्दोग्योपनिषद् (८।६।६) के एक मन्त्र में पाया जाता है-'हृदय की १०१ नाड़ियां हैं, उनमें से एक मस्तक में प्रवेश करती है, इसके द्वारा कोई ऊपर चढ़कर अमरता की उपलब्धि करता है; अन्य नाड़ियाँ विभिन्न दिशाओं की ओर जाने का कार्य करती हैं।' प्रश्न उप० (३।६-७) में आया है कि १०१ नाड़ियों में प्रत्येक में ७२ उपनाड़ियाँ हैं, जिनमें पुन: १००० और (सूक्ष्म) नाड़ियाँ होती हैं। देखिए मुण्डक उप० (२।२।६)। छान्दोग्योपनिषद् (८।६।१) में आया है कि हृदय की नाड़ियों में एक सूक्ष्म पदार्थ होता है जिसका रंग भूरा, श्वेत, नील, पीत या लाल होता है । सम्भवतः यही पिङ्गला नामक नाड़ी के विषय की चर्चा का मूल है। मैत्रायणी उप० (६।२१) ने सुषुम्ना नाड़ी का उल्लेख किया है, जो ऊपर को जाती है। विष्णुपुराण (६।७।३६) ने मद्रासन का उल्लेख किया है, जिसे वाचस्पति ने उद्धृत किया है। अन्य पुराणों में वायु (११११३), मार्कण्डेय (३६।२८), कूर्म (२।११।४३), लिंग (१।८१८६), गारुड़ (१।२३८।११) ने स्वस्तिक, पद्म एवं अर्धासन नामक तीन आसनों की चर्चा की है। विष्णुधर्मोत्तर-पुराण (३।२८३॥६) ने स्वस्तिक, सर्वतोभद्र, कमल (पद्म) एवं पर्यक नामक आसनों को ध्यान के लिए व्यवस्थित किया है । भागवत० (३।२८१८) ने आसन-सम्बन्धी गीता (६।११) के शब्दों (शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य) का प्रयोग किया है। आसनों के दो प्रकार हैं, जिनमें एक प्राणायाम, ध्यान एवं एकाग्रता के लिए उपयोगी है, यथा--पद्म, सिद्ध एवं स्वस्तिक । आसनों का दूसरा प्रकार शारीरिक रोगों के निवारण एवं स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होता है। किन्तु इनमें अधिकांश में विभिन्न शारीरिक आयासों की आवश्यकता होती है और इन आसनों द्वारा उपस्थापित अन्तिम शरीर-दशा गम्भीर ध्यान को असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य बना देती है। देखिए शीर्षासन, सर्वांगासन, हलासन, विपरीतकरणी, मयूरासन । तेजोबिन्दु उपनिषद् (१।२३) का कथन है कि वही आसन (उचित) आसन है जो ब्रह्म में निरन्तर ध्यान लगाना सम्भव करता है; अन्य आसन केवल कठिनाई उत्पन्न करते हैं। ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि उस व्यक्ति को, जो उच्चतर योग-अनुशासन के पीछे पड़ा हुआ है, आसनों में कुछ समय देना चाहिए, क्योंकि तभी वह आगे के योग-स्तर को प्राप्त कर सकेगा। वास्तव में आसनों का प्रारम्भिक उद्देश्य है रोगों का निवारण करना एवं स्वस्थ शारीरिक संस्कार की प्राप्ति करना। यदि कोई योगी अपेक्षाकृत स्वस्थ शरीर वाला है तो वह प्राणायाम एवं अन्य अंगों का अभ्यास कर सकता है। आसनों के अतिरिक्त योगाभ्यासी को अपनी नाक के अग्रमाग पर (घाटक) अपलक देखते रहना होता है (गीता, ६।१३)।। योगी को क्या खाना चाहिए, क्या नहीं खाना चाहिए तथा उसे कहां पर योगाभ्यास करना चाहिए, इस विषय में बहुत-से नियम प्रतिपादित किये गये हैं। शान्तिपर्व' में आया है कि योगी को चावल के छोटे-छोटे कण ५१. कणानां भक्षणे युक्तः पिण्याकस्य च भक्षणे। स्नेहाना वर्जने युक्तो योगी बलमाप्नुयात् ॥ भुजानो यावकं रूक्ष वीर्घकालमरिन्दम । एकारामो विशुद्धात्मा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ पक्षान् मासानतश्चैतान् सञ्चाश्च गुहांस्तथा। अपः पीत्वा पयोमिथा योगी बलमवाप्नुयात् ॥ शान्ति० (२८६।४३-४५, ३००। ४३-४५ चित्रशाला प्रेस संस्करण)। और देखिए मार्कण्डेय ० (३६।४८-५०), ब्रह्मपुराण (२३४-७-६), कूर्म० (२।११४७-५२),स्कन्ब० (काशीखण्ड ४११६५-६६), हिंगपु० (११८७६-८४), नहीं योगाभ्यास के लिए बजित स्थानों का उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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