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धर्मशास्त्र का इतिहास का अभ्यास किया जाय तो व्यक्ति न केवल स्वस्थ, शक्तिशाली, शुद्ध एवं सक्रिय बन जाता है, प्रत्युत वह आन्तरिक शक्ति एवं सुख पाता है। हठयोग की पद्धति से तीन परिणाम प्रकट होते हैं-(१) रोगों एवं मन की अव्यवस्थाओं
हो जाना, (२) सिद्धियों की प्राप्ति जिससे (३) राजयोग एवं कैवल्य की उपलब्धि हो जाती है। स्वयं हठयोगप्रदीपिका में कहा गया है कि हठयोग का उद्घोष राजयोग के लिए ही हुआ है, अर्थात् राजयोग ही हठयोग का प्रमुख फल है न कि सिद्धियाँ और राजयोग से कैवल्य की उपलब्धि होती है। हठयोगप्रदीपिका ने पतञ्जलि की भाँति आठ अंगों का उल्लेख किया है, किन्तु इसमें यम १० हैं, जिनमें हलका भोजन करना प्रमुख है और नियमों में अहिंसा प्रथम स्थान रखती है। आठ अंगों के अतिरिक्त इसमें विशेषतः महामुद्रा, खेचरी, जालन्धर, उड्डीयान तथा मूलबन्ध, वज्रोली, अमरोली एवं सहजोली का उल्लेख है (१।२६-२७)। हठयोगप्रदीपिका (१।५८) के अनुसार हठयोग का आरम्भ आदिनाथ (अर्थात् शिव) से हुआ। इसने मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ से लेकर आगे के ३५ महासिद्धों के नाम लिये हैं। ज्ञानदेव की भगवद्गीता-सम्बन्धी टीका ज्ञानेश्वरी ने अन्त में गरुपरम्परा का उल्लेख यों किया है-आदिनाथ , मत्स्येन्द्रनाथ, गोरक्षनाथ, गहिनीनाथ, निवृत्तिनाथ, ज्ञानदे
हठयोग एवं पातञ्जलयोग के ग्रन्थों में अन्य भेद भी पाये जाते हैं । गोरक्षशतक एवं हठयोगप्रदीपिका के अनुसार आसन एवं प्राणायाम का प्रमुख उद्देश्य है कण्डलिनी (व्यक्ति की मार्मिक शक्ति जो के मल में सर्प के समान कण्डली या गेंडर लगाये रहती है) को जगाना तथा उसे कतिपय चक्रों से पार कराना तथा सषम्ना नाडी को ब्रह्मद्वार तक ले जाना, जब कि योगसत्र चक्रों एवं नाड़ियों की कदाचित् ही चर्चा करता है। बहुत-से लोग कुण्डलिनी पर लिखे गये ग्रन्थों के आधार पर कुण्डलिनी जगाने का प्रयास कर बैठते हैं। यह एक भयंकर प्रयोग है। श्री पुरोहित स्वामी ने अपने ग्रन्थ 'एफोरिपम्स आव योग' में लिखा है कि कुण्डलिनी का जागरण एक भयंकर अनु
मद्रामों के नाम आये हैं। सर पॉल व्यक्स लिखित 'दि योग आव हेल्थ, यूथ एवं ज्वॉय' हाल का लिखा एक ग्रन्थ है जो पाश्चात्य लोगों के लिए योग पर लिखा गया है (कैसेल, लंदन, १६६०)। यह अति उपयोगी ग्रन्थ है, इसमें लगभग ७० अतीव सन्दर चित्र हैं और व्यक्तिगत अभ्यास के आधार पर अत्यन्त सावधानी से यह लिखा गया है। लेखक वर्षों तक सेना में सैनिकों के समक्ष योगाभ्यास की उपयोगिता पर भाषण किया करते थे।
४६. केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते। हठ० (११२), जिस पर ज्योत्स्ना की टिप्पणी है-'राजविद्या एव मुख्यं फलं न सिद्धयः। रानयोगद्वारा कंवल्म फलम्।' बहुत-से सिद्धों, यथा-मत्स्येन्द्रनाम, शाबरानन्द, भैरव, गोरक्ष आदि का उल्लेख करने के उपरान्त हठयोगप्रदीपिका (१८) ने यों अन्त किया है-'इत्यादयो महासिदा हठयोग-प्रभावतः ।'
५०. योगसूत्र ने नाभिचक्र (यह केवल नाभि है, जिसका आकार वृत्तवत् है) एवं कूर्मनाड़ी का क्रम से ३।२६ एवं ३३१ में उल्लेख किया है। देखिए गोरक्षशतक (श्लोक १०-२३, ५४-६७) जहाँ चक्रों, नाड़ियों, ब्रह्मद्वार आदि का उल्लेख है। हठयोगप्रदीपिका (३) में कुण्डलिनी के जागरण का उल्लेख है। गोरक्षशतक का मूल एवं अनुवाद डब्लू० जी० बिग्स कृत 'गोरखनाथ एण्ड दि कनफटास' (पृ० २८४-३०४) में है जो अभी हाल में स्वामी कुवलयानन्द द्वारा अनुवाद एवं टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ है (१६५६)। डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने 'नाथ सम्प्रदाय' (१९५०)नामक एक अन्य लिखा है। डा० मोहनसिंह ने भी 'गोरखनाथ एण्ड मेडोवल हिन्दू मिस्टिसिज्म' नामक एक ग्रन्थ लिखा है। यदि ज्ञानेश्वरी में उल्लिखित गुरुपरम्परा को ठीक माना जाय तो गोरखनाथ लगभग ११०० ई० में या इससे कुछ ही काल पश्चात् हुए थे। और देखिए श्री आर० सी० धेरे कृत पराठी ग्रन्थ 'गोरक्षनाम की जीवनी एवं शिष्यों की परम्परा' (पृ. २२४)।
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