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धर्मशास्त्र का इतिहास पवित्र किया गया हो।'४२ द्वितीय पाद के सूत्र ३३-३४ में आया है कि जब योगाभ्यासी विपरीत विचारों से आक्रमित हो जाय (यथा-जिसने मेरी हानि की है, मैं उसे मार डालूंगा, में असत्य भाषण करूंगा, मैं दूसरे का धन ले लूंगा, मैं दूसरे की पत्नी के साथ बलात्कार करूँगा) तो उसे दृढप्रतिज्ञ हो जाना चाहिए और मन में इन विचारों के विपरीत विचारों की उत्पत्ति करनी चाहिए और ऐसे दुष्कर्मों के परिणामों पर विचार करना चाहिए, यथा-ऐसे कर्मों से असीम दुःख मिलता है और यह सम्यक् ज्ञान के अभाव का परिचायक है। यम एवं नियम योग के अभिलाषी के लिए आरम्भिक आचार-शास्त्र की बातें हैं, जिनका पालन परमावश्यक है और मन एवं याज्ञवल्क्य के अनुसार इनके कुछ भाग का पालन सभी लोगों को करना चाहिए।
द्वितीय पाद के सूत्र ३५-४५ में कतिपय यमों एवं नियमों के निरन्तर पालन के परिणाम रखे गये हैं, यथा--जब अभिलाषी अहिंसा में दृढस्थित हो जाता है तो सभी प्राणी (मानव एवं पशु) उसकी उपस्थिति में वैर का त्याग कर देते हैं ।४३ जब योग का अभिलाषी असत्यभाषण से दूर रहने के अभ्यास में दृढ हो जाता है तो उसकी बाणी बड़ी प्रभावशाली हो जाती है और वह जो कुछ किसी से कहता है, लोग उसे मान लेते हैं। (यथा यदि वह किसी से कहे 'तुम पवित्र या साधुवृत्ति वाले बनो' या 'तुम्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो जाय' तो वह व्यक्ति साधुवृत्ति वाला हो जाता है या स्वर्ग प्राप्ति करता है)। यदि वह चौयं कर्म से सर्वथा दूर हट जाता है तो सभी रत्न, सभी दिशाओं से आकर, उसका चरण-चुम्बन करते हैं (अर्थात् वह भले ही धन या साधनों के पीछे न पड़े, किन्तु धन-सम्पत्ति अपने-आप उसके पास चली आती है)। जब योगी ब्रह्मचर्य में दृढ रूप से प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसे शक्ति-लाभ होता है (जिसके द्वारा वह अणिमा की शक्ति भी पा लेता है) और जब वह
४२. सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम् । योर्थे शुचिहि स शुचिर्न मद्वारिशुचिः शुचिः ॥ मनुस्मृति (११०६); विष्णुधर्मसूत्र (२२।८६) में भी यही बात है, किन्तु वहां 'अर्थ' के स्थान पर 'अन्न' है। विष्णुधर्मोत्तर० (३।२७५॥१३) में आया है-'तस्माद्धि सर्वशौचानां मनःशौचं परं स्मृतम् ।' मिलाइए 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः (छान्दोग्योपनिषद् ७।२६।२) एवं 'आहार ... शुद्धिरित्याचार्याः' (अपरार्क द्वारा याज्ञ० १११५४ की व्याख्या में हारीतधर्मसूत्र से उद्धृत )।
४३. अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः । योगसूत्र (२०३५); वाचस्पति का कथन है-'शाश्वतिकविरोधा अप्यश्व-महिष-मूषक-मार्जाराहि-नकुलादयोऽपि भगवतः प्रतिष्ठिताहिंसस्य संनिधानात्तच्चित्तानुकारिणो वैरं त्यजन्ति ।' संस्कृत के कवियों ने मुनियों के आश्रमों के इस स्वरूप का मनोहर वर्णन किया है। देखिए कादम्बरी (पर्वभाग जहां जाबालि के आश्रम का वर्णन है)-'अस्य भगवतः प्रसादादेवोपशान्तवरमपगतमत्सरं तपोवनम् । अहो प्रभावो महात्मानाम् । अत्र हि शाश्वतिकमपहाय विरोधमुपशान्तात्मानस्तिर्यञ्चोऽपि तपोवनसुखमनुभवन्ति । तथाहि एष... विशति शिखिनः कलापमातपाहतो निःशंकमहिः। अयमुत्सृज्य मातरं...प्रक्षरत्क्षीरधारमापिबति कुरंगशावकः सिंहीस्तनम् ।'
४४. देखिए छा० उप० (८।२।१०) 'यं यमन्तमभिकामो भवति यं कामं कामयते सोऽस्य संकल्पादेव समुत्तिष्ठति तेन सम्पन्नो महीयते।' ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः। योगसूत्र (२।३८); १२२० में यों आया है-- 'श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ।' अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासम्बोधः । योगसूत्र २।३६, 'कथंता' का अर्थ है "किंप्रकारता।'
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