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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २७१ गृहस्थ जो मासिक धर्म के उपरान्त कुछ विशिष्ट दिनों में अपनी पत्नी के पास जाता है और पर्व के दिनों में ऐसा नहीं करता (देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ३, पाद-टिप्पणी १४२५), उसे ब्रह्मचर्य व्रत का पालक कहना चाहिए, किन्तु जब वह योगमार्ग पर आरूढ होता है तो उसे यह छूट छोड़ देनी होगी और सभी प्रकार की नारियों से, यहाँ तक कि अपनी पत्नी से भी, सभी प्रकार के सम्बन्ध छोड़ देने होंगे । इस बात पर लिंगपुराण ने बहुत बल दिया है ।४० युक्तिदीपिका ने, जो सांख्यकारिका की एक प्राचीनतम टीका है, उल्लिखित किया है कि यम पाँच हैं, किन्तु उसने 'अपरिग्रह' के स्थान पर 'अकल्कता' (दुष्टता अथवा वक्र व्यवहार का अभाव) रखा है। विष्णु पु० (६।७।३६-३७) ने पाँच यमों एवं पाँच नियमों का वैसा ही उल्लेख किया है, किन्तु 'ईश्वरप्रणिधान' के स्थान पर 'परब्रह्म में संलग्न मन' को रखा है (कुर्वीत ब्रह्मणि तथा परस्मिन् प्रवणं मनः)। योगसूत्र (२।३२) के अनुसार पाँच नियम ये हैं-शौच (शुद्धता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय (वेदाध्ययन) एवं ईश्वरप्रणिधान (ईश्वर-भक्ति या अपने सभी कर्मों का ईश्वर को समर्पण) । इनमें तीन, यथातपस्या, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान को क्रियायोग कहा जाता है, जैसा कि योगसूत्र (२।१) में उल्लिखित है। कर्तव्य की वस्तुगत परिभाषा करना अत्यन्त कठिन है, किन्तु आत्मगत आधार पर इसकी परिभाषा की जा सकती है। कर्तव्यों पर बल देने का उद्देश्य यह है कि व्यक्ति छोटी-छोटी इच्छाओं से ऊपर उठे और उच्चतर व्यक्तित्व को प्रकाशित करे । ये कर्तव्य या नियम अधिक या कम उपनिषदों पर आधृत हैं, देखिए छान्दोग्योपनिषद् (३।१७।४) जहाँ तप, अहिंसा, सत्यभाषण, दान एवं आर्जव यजमान द्वारा प्राप्त किये जाने वाले शील-गुण कहे गये हैं । और देखिए बृह० उप० (५।२।३) जहाँ सभी लोगों को दम (आत्म-निग्रह), दान, दया अपने में उत्पन्न करने को कहा गया है । उपर्युक्त विवेचन से प्रकट होता है कि योगसूत्र द्वारा व्यवस्थित यम ऐसे कर्तव्य हैं जो निषेध के रूप में हैं, यथा-किसी को कष्ट न दो, झूठ न बोलो, किसी को लूटो नहीं, (दान ग्रहण न करो) तथा नियम ऐसे कर्तव्य हैं जिनका सम्बन्ध ऐसे व्यक्ति से है जिसने योगमार्ग का अनुसरण कर लिया हो, और वे भावात्मक रूप में प्रतिपादित हैं, यथा-शुद्ध रहो, सन्तुष्ट रहो, तप में लगे रहो, वेदों का अध्ययन करते रहो और ईश्वर-भक्त बनो। अमरकोश१ के अनुसार यम नित्य कर्म हैं और वे शरीरसाधनापेक्ष (शरीर द्वारा किये जानेवाले) हैं, किन्तु नियम ऐसे हैं जो अनित्य हैं (अर्थात् प्रतिदिन या निरन्तर न किये जाने वाले) और वे शरीर से बाहर के साधनों पर आश्रित हैं (यथा जल आदि)। शौच के दो प्रकार हैं-बाह्य (जल, मिट्टी, पंचगव्य, पवित्र भोजन आदि द्वारा प्रभावित शरीर का), एवं आभ्यन्तर (आन्तरिक या मानसिक) । देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० ६५१-५२ एवं मूल खण्ड ४, पृ० ३१०-३११ । मनु० (५।१०६) का एक श्लोक अवलोकनीय है-सभी शौचों में वह सर्वोत्तम है जो अर्थ से सम्बन्धित है (अनुचित साधनों से दूर रहकर तथा दूसरों को वञ्चित न करके धन की कामना करनी चाहिए), वह व्यक्ति 'शुचि' (पवित्र) है जो अर्थ के मामले में पवित्र हो, वह नहीं जो मिट्टी या जल से ४०. कर्मणा मनसा वाचा सर्वावस्थासु सर्वदा । सर्वत्र मैथुनत्यागं ब्रह्मचर्य प्रचक्षते ॥ कूर्म० (२।२।१८), योगियाज्ञवल्क्य (१।५५); अंगारसदृशी नारी घृतकुम्भसमः पुमान् । तस्मान्नारोषु संसर्ग दूरतः परिवर्जयेत् ॥ लिंगपु० (शा२३)। ४१. शरीरसाधनापेक्षं नित्यं यत्कर्म तद्यमः । नियमस्तु स यत्कर्मानित्यमागन्तुसाधनम् ॥ अमरकोश (द्वितीय काण्ड, ब्रह्मवर्ग) । क्षीरस्वामी ने योगसूत्र की परिभाषाएँ उद्धत की हैं और व्याख्या की है-'आगन्तु बाह्यं मुज्जलावि साधनं यत्रेति, अत एव कृत्रिमकर्म नियमः ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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