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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २७३ इसमें पूर्णता प्राप्त कर लेता है तो वह योग-ज्ञान एवं योग के अंगों को अपने शिष्यों में स्थानान्तरित करने के योग्य हो जाता है। योगसूत्र (१२०) में ऐसा आया है कि असंप्रज्ञात-समाधि तभी आती है जब योगी में विश्वास, वीर्य (शक्ति) एवं अन्य गुण पाये जाते हैं। योगी या ब्रह्मज्ञान के अन्वेषक के लिए मन, वचन एवं कर्म की पवित्रता पर बहुत बल दिया गया है ('माण्डू क्य०३।११५–'सत्येन लभ्यस्तपसा ह्येष आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम्')। वास्तव में बात यह है कि यदि योगी पूर्णतया पवित्र एवं इन्द्रियनिग्रही है तो वह समाधि के अन्तिम ध्येय एवं कैवल्य के पास पहुंचने में शीघ्रता करता है और बिना जितेन्द्रिय हुए राजयोग का अभ्यास व्यर्थ एवं भयंकर है। जो लोग ब्रह्मचर्य की महत्ता को विशेष रूप से जानना चाहते हैं उन्हें महात्मा गान्धी लिखित 'सेल्फ-रेस्ट्रेण्ट वसंस सेल्फ-इण्डल्जेंस' (तृतीय संस्करण, १६२८, विशेषत: अनुक्रमणिका-१, पृ० १३७-१३८, जहाँ श्री डब्लू० एल० हरे का निबन्ध भी है) का अध्ययन करना चाहिए। जब योगी दृढ रूप से अपरिग्रह में प्रतिष्ठित हो जाता है तो उसमें अपने अतीत, वर्तमान एवं भविष्य के जीवनों के ज्ञान की इच्छा जागती है (और उनसे उसे प्रकाश प्राप्त होता है)। अपने शरीर को स्वच्छ एवं शुद्ध कर लेने के उपरान्त योगी अपने शरीर से मोह छोड़ देता है और अन्य लोगों के संस्पर्श का त्याग कर देता है। मन की शुद्धता के अन्य परिणाम हैं सत्त्वगुण की शुचिता (अर्थात् उस पर रज एवं तम का प्रमाव नहीं पड़ता), इन्द्रियों पर अधिकार एवं आत्मा के परिज्ञान के लिए समर्थता की प्राप्ति। सन्तोष से परम सुख मिलता है। तप से शरीर की पूर्णता की प्राप्ति होती है (अणिमा के समान गुप्त शक्तियों की उपलब्धि होती है) और उससे क्लेश एवं पाप नष्ट हो जाने के उपरान्त ज्ञानेन्द्रियों की पूर्णता प्राप्त होती है। लगातार वेदाध्ययन ('ओम्' के जप आदि) से अपने मनचाहे देवता की अनुभूति होने लगती है। ईश्वर की भक्ति से समाधि में पूर्णता प्राप्त होती है। अब हम आसन का अध्ययन करेंगे। योगसूत्र में इसकी परिभाषा दी हुई है-'आसन वह है जो स्थिर हो और सरल हो' (स्थिरसुखमासनम् २।४६)। आसन वह है जो कुश घास से आवृत हो, उस पर मृगचर्म या वस्त्र बिछा हो, जैसा कि गीता (६।११) में उल्लिखित है। यह बाह्य आसन है । किन्तु योग में आसन शारीरिक अवस्थिति का द्योतक है। यह द्रष्टव्य है कि योगसूत्र उन आसनों को, जो हठयोगप्रदीपिका एवं हठयोग-सम्बन्धी अन्य ग्रन्थों में उल्लिखित हैं, स्पष्ट रूप से व्यवस्थित नहीं करता और उसमें आया है कि ये आसन पातञ्जल योग के अभ्यास के लिए आवश्यक नहीं हैं, प्रत्युत कोई भी आसन जो सरल हो, स्थिर हो एवं सुखद हो, योगी के लिए पर्याप्त है। योगसूत्र यहाँ पर श्वेताश्वतरोपनिषद् (२।८ एवं १०) का अनुसरण करता है न कि किसी हठयोग-सम्बन्धी ग्रन्थ का (यदि वह योगसूत्र के काल में उपस्थित रहा हो)। ऊपर वर्णित आसन की प्राप्ति के लिए योगी को अपने शरीर की स्वाभाविक गतियों को ढीला कर लेना होगा (प्रयत्नशैथिल्य) और मन को ब्रह्म में केन्द्रित कर लेना होगा। आसन पर पूर्ण स्वामित्व-स्थापन के फलस्वरूप वह द्वन्द्वों (उष्णता एवं शीत, भूख एवं प्यास आदि) से विमोहित नहीं होता। जो लोग आसनों के विषय में विशिष्ट जानकारी प्राप्त करना चाहते हैं वे पूना के पास लोनावाला के कैवल्यधाम के श्री कुवलयानन्द द्वारा प्रणीत एवं प्रकाशित ग्रन्थ 'आसन्स' पढ़ सकते हैं। यह ग्रन्थ कुल १८८ पृष्ठों में है, इसमें ८१ चित्र (विभिन्न आसनों के ७८ चित्र एवं नौलि के ३ चित्र) हैं। दक्षस्मृति (७.५) में पद्मासन का उल्लेख है और लगता है याज्ञ० (३।१६८) ने भी इसकी ओर संकेत किया है। डा० के० टी० बेहनान ने अपने ग्रन्थ 'योग, ए साइण्टिफिक इवैलुएशन' में कतिपय आसनों के १६ चित्र दिये हैं। यद्यपि योगसूत्र ने किसी आसन का नाम नहीं लिया है तथापि व्यासभाष्य ने इनके नाम लिये हैं और उसके 'आदि' शब्द से कुछ अन्य आसनों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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