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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास या मोक्षशास्त्रों का अध्ययन है। शतपथब्राह्मण (११३५१७) में स्वाध्याय की प्रशंसा की गयी है और 'स्वाध्यायोऽध्येतव्यः' (वेद का अध्ययन करना चाहिए) जैसे शब्दों का प्रयोग बहुधा हुआ है। 'ओम्' उन प्रतीकों में अत्यन्त महत्वपूर्ण है जिनके द्वारा ब्रह्म की उपासना की जाती है। देखिए छान्दोग्योपनिषद् (१।१।१ 'ओमित्येदक्षरमुद्गीथमुपासीत'), त० उप० (११८ 'ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम्), मुण्डकोपनिषद् (२।२।४ 'प्रणवो धनः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते', अर्थात् 'ओम् धनुष है, आत्मा तीर है, ब्रह्म लक्ष्य है), प्रश्न उप० (५।५ 'य: पुनरेतं त्रिमाणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषमभिध्यायीत) । योगसूत्र ने ओम् की यह महत्ता उपनिषदों से ली है। अनित्य को नित्य, अशुद्ध को शुद्ध, क्लेश (पीड़ा) को आनन्द एवं अनात्मा को आत्मा समझना अविद्या है। जब द्रष्टा को देखने के यन्त्र के अनुरूप (यथा मन एवं इन्द्रियों के अनुरूप) समझा जाता है तो अस्मिता (अर्थात् व्यक्तिता की अनुभूति) होती है। अभिनिवेश (जीवन से चिपके रहना) का अर्थ है ऐसी कांक्षा या ईहा (क्या मैं जीना नहीं चाहता, क्या मैं जीता रहूँगा?) जो अपनी शक्ति से ही बढ़ती रहती है और विद्वानों में भी उसी रूप से स्थापित रहती है। ईश्वरप्रणिधान की व्याख्या ऊपर हो चुकी है। योगसूत्र (२।११ एवं १२) का कथन है कि क्लेशों की सूक्ष्म दशाएँ (अर्थात् अविद्या एवं अस्मिता) होती हैं और वृत्तियों के रूप में (मन की चंचलता, राग, द्वेष एवं अभिनिवेश) स्थूल परिणाम होते हैं; सूक्ष्म दशाओं से छुटकारा वास्तविक ज्ञान से परिणाम ध्यान से नियन्त्रित होते हैं। कर्म का सञ्चित संग्रहण पांच क्लेशों से उत्पन्न होता उनका भोग दृष्ट जन्म (वर्तमान जन्म) एवं अदृष्ट जन्म (अर्थात् भविष्य) में होता है। जब तक जड़ (मल अर्थात् क्लेश) विद्यमान रहती है संचित कर्म तीन रूपों में प्रकट होता है, अर्थात् जन्म, जीवन (लम्बा या छोटा) एवं भोग के रूप में, और ये तीनों रूप अच्छे या बुरे कर्मों के अनुसार क्रम से आनन्द या क्रोध की उत्पत्ति करते हैं। योगसूत्र में आया है कि योगशास्त्र में चिकित्साशास्त्र की भाँति चार व्यूह (स्वरूप) होते हैं, यथा-संसार (जन्मों एवं पुनरागमन का चक्र). संसार का कारण. संसार से मक्ति. मक्ति दर्शन, वास्तविकता में पहुंच अथवा त्रुटिपूर्ण ज्ञान से रहित पुरुष एवं प्रकृति में अन्तर्भेद करना)। ७७ योगसूत्र ३६. स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्राणां जपो मोक्षशास्त्राध्ययनं वा । योगसूत्र (२३१) । गौतमधर्मसूत्र (१६॥ १२%=बौधायनधर्मसूत्र ३३१०१०, वसिष्ठ० २२६) ने उपनिषदों, वेदान्त एवं कुछ वैदिक वचनों को पवित्र वचन (या वाक्य) की संज्ञा दी है जिनके जप से व्यक्ति पापों का प्रायश्चित्त करता है । वसिष्ठधर्मसूत्र (२८।१०-१५= विष्णुधर्मसूत्र ५६, गद्य में शंखस्मृति १०।१२ एवं अध्याय ११) ने सभी वेदों के पवित्र वचनों (पवित्राणि) को उल्लिखित किया है । 'प्रणव' शब्द तितिर यसहिता (३।२।६।५-६) में आया है'उद्गीथ एवोद्गातृणामचः प्रणव उपयशंसिनाम्', जिसे शबर (पू० मी० सू० ३७॥४२) ने उद्धृत किया है। ३७. यथा चिकित्साशास्त्र चतुर्व्यहम्-रोगो रोगहेतुरारोग्यं भैषज्यमिति, एवमिदमपि शास्त्रं चतुर्म्यहमेव तद्यथा-संसारः संसारहेतुः मोक्षः मोक्षोपायः इति । तत्र दुःखबहुलः संसारो हेयः । प्रधानपुरुषयोः संयोगो हेयहेतुः संयोगस्यात्यन्तिको निवृत्तिर्हानम् । हानोपायः सम्यग्दर्शनम् । योगभाष्य (यो० सू० २०१५ पर)। हेयं दुःखमनागतम् । द्रष्टदृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः। ... तस्य हेतुरविद्या । तदभावात्संयोगाभावो हानं तद् दृशः कैवल्यम् । विवेकल्यातिरविप्लवा हानोपायः। योगसत्र (२११६, १७, २४-२५)। मिलाइए बुद्ध के चार आर्य सत्य-दःख, दुःखसमुदय, दुःखनिरोध, दुःखनिरोधगामिनी पटिपदा, देखिए महावग्ग (१।६।१६-२२)। वाचस्पति के अनुसार 'विप्लव' का अर्थ है मिभ्यामान । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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