SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग एवं धर्मशास्त्र २६७ किये जाने पर समाधि की उत्पत्ति करते हैं, उन क्लेशों को कम करते हैं जो अविद्या (अज्ञान, जिससे अन्य चारों की उत्पत्ति होती है), अस्मिता (व्यक्तित्व का भाव), राग (वासनाओं के प्रति मोह), द्वेष (जो क्रोधपूर्वक पीड़ा एवं उसके कारणों में पाया जाता है) एवं अभिनिवेश (जीने की इच्छा या जीवन से चिपकना) के रूप में प्रकट होते हैं । व्यासभाष्य में तप की व्याख्या (यो० सू० २॥३२) द्वन्द्वों को सह लेने के रूप में हुई है, यथा-भूख एवं प्यास, शीत एवं उष्ण, खड़ा रहना एवं बैठा रहना; स्थाणु (थून्ही) की भाँति स्थिर रहना (संकेतों द्वारा भी मन में उठती भावनाओं को न व्यक्त करना), देह की स्थिरता (सर्वथा मौन रहना) तथा कृच्छ, चान्द्रायण एवं सान्तपन जैसे व्रत भी तप में परिगणित होते हैं। व्यासभाष्य ने 'स्वाध्याय' की व्याख्या की है और कहा है कि यह ओम् एवं अन्य पवित्र वचनों का जप 'तपस्' का अर्थ है 'तपस्या, वैराग्य या दैहिक संयम ।' तपसा येऽनाधृष्यास्तपसा ये स्वर्ययुः । तपो ये चक्रिर महस्तांश्चिदेवापि गच्छतात् । ऋ० १०॥१५४।२ (यह मृत व्यक्ति के आत्मा को सम्बोधित है)-'जो तपों के कारण दुष्प्रधर्ष (अधृष्य, अर्थात् जिन पर आक्रमण नहीं किया जा सकता) हैं, जो तपों के कारण स्वर्ग को गये और जिन्होंने महान् तप किये उन्हें मिला दो ।' अन्य ज्ञात लोगों की अपेक्षा भारतीयों में ही सर्वप्रथम तप पर इतना बल दिया गया । ऋ० (१०।१६०।१) में आया है कि उचित (न्याय्य) एवं सत्य तथा सूर्य एवं चन्द्र और विश्व तपों से ही उत्पन्न हुए हैं । ऋ० (१०।१०६४) में सप्तर्षियों को तपस्या के लिए बैठे हुए कहा गया है। ऋ० (१०।१३६।२) में मुनियों को लम्बी-लम्बी जटा वाले एवं गन्दे पीत वस्त्र पहने मार्गों पर चलते हुए व्यक्त किया गया है । शतपथब्राह्मण (६।१।१।१३) एवं ऐतरेयब्राह्मण (११६।४) में ऐसा व्यक्त किया गया है कि यज्ञ के समान तप सब कुछ प्रदान करेगा। उपनिषदों (यथा-तै० उप० ३३५'तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व', बृहः उप० ४।४।२२.) ने बलपूर्वक कहा है कि तप ब्रह्मज्ञान के साधनों में एक साधन है। छान्दोग्योपनिषद् (२।२३) ने तप को तीन धर्मस्कन्धों में दूसरा स्थान दिया है । आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।२।२१) में ऐसा कहा गया है कि वैदिक विद्यार्थियों के लिए जो कठोर व्रत या नियम व्यवस्थित किये गये हैं, वे तप कहे जाते हैं (नियमेषु तपःशब्दः)। गौतमधर्मसूत्र (१६।१५) ने व्यवस्था दी है कि काम-सम्बन्धी शुद्धता, सत्यता दिन में तीन बार बार स्नान, गीला वस्त्र-धारण, यज्ञिय भूमि पर शयन एवं उपवास तप कहे जाते हैं, मनु० (१०७०) ने व्यवस्था दी है कि यदि व्यवस्थित नियमों के अनुसार एवं सात व्याहृतियों एवं प्रणव के साथ तीन प्राणायाम सम्पादित किये जायं तो वे सभी ब्राह्मणों के लिए सर्वोत्तम तप हैं। मनु० (१११२३४-२४४) में तपों की बड़ी सुन्दर स्तुति की गयी है, श्लोक २३८ में आया है-'तप द्वारा सभी कुछ सम्पादित हो सकता है, क्योंकि तप में दुर्जेय शक्ति पायी जाती है। याज्ञ० (१११६८-२०२) ने भी तप की प्रभूत महत्ता गायी है। जैमिनि (पू० मी० स० ३३८) में 'उपवास के लिए 'तपस' शब्द का प्रयोग किया गया है। महाभारत में भी तप की प्रशंसा की गयी है, देखिए-वनपर्व २५६।१३।१७, शान्ति० ५०१२ (देवों एवं मुनियों ने तप द्वारा अपना स्थान प्राप्त किया) । अनुशासन (१२२॥५-११) । शान्ति० (७६।१८) में यों आया है-'अहिंसा सत्यवचनमानशंस्यं वमो घृणा । एतत्तपो विदुर्धीरा न शरीरस्य शोषणम् ॥ यहाँ पर महाभारत के सभी श्लोक चित्रशाला प्रेस के संस्करण से लिये गये हैं। योगियों से 'अजपा जप' करने को कहा गया है, अर्थात् जब वे भीतर सांस लेते हैं तो 'सोह' ध्वनि होती है और जब वे साँस बाहर करते हैं तो 'हंसः' ध्वनि, तथा मिश्रित शब्द हैं 'सोहं हंसः' अर्थात् 'मैं वह हंस (नित्य आत्मा) हूँ।' मिलाइए बृहद्योगियाज्ञवल्क्य (२०११५)-'हंसं तुर्य परं ब्रह्म ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy