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________________ २५६ धर्मशास्त्र का इतिहास रहता है। पतञ्जलि एक महान् मनोवैज्ञानिक थे। लक्ष्य स्थापित (अविद्या एवं गुणों से आत्मा को पृथक् रखकर कैवल्य प्राप्त करना तथा आत्मा के अपने शुद्ध स्वभाव की प्राप्ति) हो जाने के उपरान्त योगसूत्र उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए एक दृढ अनुशासन की व्यवस्था करता है। फ्रायड जैसे आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की स्थापनाओं एवं पतञ्जलि की धारणाओं में दो मौलिक अन्तर हैं।७४ पहली बात यह है कि पतञ्जलि बन्धन से मुक्त आत्मा की मुक्ति एवं स्वतन्त्रता पर सम्पूर्ण बल देते हैं, सामान्य संवेगों एवं इच्छा को प्रशिक्षित करने के साधनों एवं कतिपय आरम्भिक उपक्रमों या परिपाटियों के रूप में मन की क्रियाओं के निग्रह की व्यवस्था बतलाते हैं, किन्तु कतिपय आधुनिक मनोवैज्ञानिक इस प्रकार के मानस दमन की भर्त्सना करते हैं। दूसरी बात यह है कि पतञ्जलि कर्म एवं आवागमन के सिद्धान्त (२।१२-१५) में पूर्ण विश्वास करते हैं और मत प्रकाशित करते हैं कि ऐसे सत्कर्म भी, जो सुख एवं आनन्द से परिपूर्ण भावी जीवन की उत्पत्ति करते हैं, सद्बुद्ध लोगों के लिए कष्टकारक हैं, किन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिक कतिपय मौलिक प्रवृत्तियों की चर्चा करते हैं और उनके वास्तविक रूप के विवेचन में एकमत नहीं हो पाते, वे कर्म एवं आवागमन के सिद्धान्त पर विचार नहीं करते और न उनके एवं सहज मल प्रवत्तियों के सम्बन्ध पर ही प्रकाश डालते हैं। यदि आत्मा की पूर्व-स्थिति नहीं होती, जैसा कि ईसाई एवं अन्य लोग विश्वास करते हैं, तो मानवीय मूल प्रवृत्तियों का उदय • कैसे होता है ? इस प्रश्न का समीचीन एवं सन्तोषप्रद उत्तर आज तक नहीं प्राप्त हो सका है। द्वितीय पाद के प्रथम सूत्र का कथन है कि क्रियायोग या ऐसी क्रियाएँ या अभ्यास, जो योग की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं, ये हैं तप३५, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान (ईश्वर-भक्ति) जो कार्यरूप में परिणत ३४. फ्रायड ने काम (मिथुन)-सम्बन्धी शक्ति को "लिबिडों की संज्ञा दी है। युंग ने, जो एक समय फ्रायड के शिष्य थे, अपना विरोध प्रकट किया है और उस शक्ति को सभी मानसिक, मानस-दैहिक या क्रियात्मक शक्ति के लिए प्रयुक्त माना है। 'इडिपस काम्प्लेक्स' (पुत्र का माता पर एवं पुत्री का पिता पर असाधारण प्रेम) के सिद्धान्त को फ्रायड-प्रणाली का केन्द्र-बिन्दु माना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि आगे चलकर फ्रायड ने अपने 'इडिपस काम्प्लेक्स' को परिमार्जित किया, और यद्यपि उन्होंने ऐसी परिकल्पना की कि इडिपस काम्प्लेक्स सभी शिशुओं में पाया जाता है, किन्तु उन्हें यह स्वीकार करना पड़ा कि स्वाभाविक विकास में यह काम्प्लेक्स (ग्रन्थि या गांठ) आगे के आरम्भिक बचपन में समाप्त हो जाता है। देखिए विलियम मैक्डूगल कृत 'एन आउट लाइन आव ऐबनॉर्मल साइकॉलोजी' (लन्दन, १६५२ का संस्करण, पृ० ४१८)। प्रो० जे० बी० वाटसन ने 'बिहेवियरिज्म' का सिद्धान्त प्रतिपादित किया है, जो मन या मानस आचरणों, झुकावों एवं वृत्तियों के अस्तित्व को अमान्य ठहराता है। इस मत के अनुसार मनोविज्ञान का विषय 'मन' नहीं है प्रत्युत वह मानव प्राणी का आचरण या त्रियाएँ है। इस मत के अनुसार मूल प्रवृत्तियों (इंस्टिक्ट्स) की धारणा, जिस पर अधिकांश मनोवैज्ञानिक मानस व्याख्याएँ उपस्थित करते हैं , निरर्थक सिद्ध हो जाती है । ३५. तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोगः । समाधिभावनार्थः क्लेशतनकरणार्थश्च । अविद्यास्मिता. रागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः । योगसूत्र (२।१-३)। धर्मशास्त्र-ग्रन्थों तथा अन्य ग्रन्थों में 'तप' की कतिपय परिभाषाएँ दी हुई हैं। 'तपस्' शब्द एक दर्जन से अधिक बार ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ है। देखिए ऋ० (६॥५॥४, ८।५६६, ८६०।१६, १०।१६।४, १०८७।१४) जहाँ सभी स्थानों पर 'तपस्' शब्द का अर्थ उष्णता हो सकता है। किन्तु ऋ० १०।१०६४, १०।१५४।२, ४ (पितृन् तपस्वतः), ५(ऋषीन् तपस्वतः), १०।१८३३१, १०।१६०१ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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