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योग एवं धर्मशास्त्र
२६६ (२।१६ - २७) में इन चारों का उल्लेख है और इनकी परिभाषा में दिये गये कुछ शब्दों का अर्थ भी बताया गया है। सूत्र २८ में कहा गया है कि जब योग के अंगों के अभ्यास से अशुद्धियाँ दूर होती जाती हैं तो ज्ञान चमकने लगता है और इस प्रकार क्रमशः अन्तर्भेद करने की शक्ति पूर्णता प्राप्त कर लेती है। इसके उपरान्त २६ सूत्र में योग के आठ अंगों का उल्लेख है, यथा -- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि | 3 वैखानसस्मार्तसूत्र ने योग के आठ अंगों का उल्लेख किया है । द्वितीय पाद के शेष सूत्र (३० से ५५ तक ) यमों एवं नियमों, उनकी व्याख्याओं, आसनों, प्राणायाम एवं प्रत्याहार का उल्लेख करते हैं । शान्ति० (३०४।७=३१६ | ७, चित्रशाला प्रेस संस्करण) ने योग को 'अष्टगुणित' या 'अष्टगुणी' कहा है। योग के आठ अंगों में प्रथम पाँच अप्रत्यक्ष रूप से समाधि के लिए उपयोगी हैं, क्योंकि वे समाधि-विरोधी (यथाहिंसा, असत्य आदि ) वृत्तियों को दूर भगाते हैं और योग के बहिरंग साधन कहे जाते हैं । किन्तु धारणा, ध्यान एवं समाधि योग के अन्तरंग साधन कहे जाते हैं ( योगसूत्र ३७, ' त्रयमन्तरंग पूर्वेभ्यः ' ) । अन्तिम तीन का विवेचन तृतीय पाद में हुआ है । धर्मशास्त्र के ग्रन्थों में द्वितीय पाद के इन्हीं सूत्रों पर बल दिया गया है। अतः इन बातों पर कुछ अधिक लिखना आवश्यक है ।
कुछ ग्रन्थों (यथा-- गोरक्षसंहिता) में योग के केवल छह अंगों का उल्लेख है, वहाँ यम एवं नियम या कुछ अन्य छोड़ दिये गये हैं । यही बात मैत्रायणी उप० (६।१८ ), ध्यानबिन्दु उप०, अत्रिस्मृति ( १११६ ), दक्ष० ( ७।३४), स्कन्दपुराण ( काशीखण्ड, ४१।५६ ) एवं बौद्धों में पायी जाती है । मनु० ( ४ | २०४ ) में आया
३८. योगांगानुष्ठानादशुद्धिक्षयं ज्ञानदीप्तिराविवेकस्यातेः । यम-नियमासन-प्राणायाम प्रत्याहार-धारणाध्यान - समाधयोष्टावंगानि ॥ यो० सू० (२।२८ - २६ ) ।२।२६ पर भाष्य यों है- 'तेषाम् (योगांगानाम् ) अनुष्ठानात् पञ्चपर्वणो विपर्ययस्याशुद्धिरूपस्य क्षयो नाशः । यथा यथा च साधनान्यनुष्ठीयन्ते तथा तथा तनुत्वमशुद्धिरापद्यते यथा यथा च क्षीयते तथा तथा क्षयक्रमानुरोधिनी ज्ञानस्यापि दीप्तिर्वर्धते । सा खल्वेषा विवृद्धिः प्रकर्षमनु भवत्याविवेकख्याते:, आगुणपुरुषस्वरूपविज्ञानादित्यर्थः । ' योगसूत्र ( २३ ) में उल्लिखित पाँच क्लेश ही विपर्यय कहे जाते हैं । यह विलक्षण बात है कि कृत्यकल्प ० ( मोक्षकाण्ड, पू० १६७) एवं अपरार्क ० ( पृ० १०२२) द्वारा आठ अंग 'यम. समाधयोष्टावंगानि' महाभारत से उद्धृत किये गये हैं । वैखानसस्मासूत्र ( ८1१०) ने योगियों को, उनके अभ्यासों एवं संयमों के अनुसार, तीन श्रेणियों में बांटा है, यथा- सारंग, एकार्थ्य एवं विसरग, जिनमें प्रत्येक पुनः कई कोटियों में बाँटे गये हैं । उसमें पुनः आया है कि 'अनिरोधक' नामक योगी प्राणायाम नहीं करते, 'मागंग' नामक योगी केबल प्राणायाम करते हैं, शेष तथा 'विमागंग' नामक योगी सभी आठ अंगों का अभ्यास करते हैं, किन्तु वे ईश्वर का ध्यान नहीं भी करते । मौलिक शब्द ये हैं-- 'ये विमार्गगास्तेषां यमनियम. त्यष्टांगं कल्पयन्तो ध्येयमप्यन्यथा कुर्वन्ति ।' अन्तिम अंश का अर्थ करना कठिन है । सम्भवतः इस वाक्य में कुछ ऐसी कोटि के योगियों का उल्लेख है जो ईश्वर का ध्यान नहीं करते और ऐसा विश्वास करते हैं कि बिना ईश्वर का ध्यान किये वे कैवल्य (मुक्ति) प्राप्त कर सकते हैं ।
३६. तथा तत्प्रयोगकल्पः । प्राणायामः प्रत्याहारो ध्यानं धारणा तर्कः समाधिः षडंग इत्युच्यते योगः । मैत्रा० उ० (२१८) । अत्रिस्मृति (६।६ ) एवं दक्षस्मृति ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है । 'आसनं प्राणसंरोधः प्रत्याहारश्च धारणा । ध्यानं समाधिरेतानि योगांगानि भवन्ति षट् ॥' ध्यानबिन्दु उप० ( श्लोक ४१, अड्यार संस्करण), गोरक्षशतक ( १४ ) एवं स्कन्दपु० ( काशीखण्ड ४१।५६ ) । अपरार्क (याज्ञ० ३।११० पू० ६६० ) ने
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