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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २५६ (वृ० उप० २।४।३।१३, ४।५।४,१४) , कहीं भी केवल 'याज्ञवल्क्य' नाम नहीं सम्बोधित हुआ है। दूसरी ओर बृह० उप० में गार्गी को वानवनवी (३।६।१, ३।८११ एवं १२) कहा गया है, वह याज्ञवल्क्य की पत्नी नहीं है, प्रत्युत वह एक प्रगल्भ एवं बौद्धिक नारी है जिसे हम जनक की राजसभा में उपस्थित अश्वल, आतंभाग, भुज्य लाह्यायनि, उपस्त चाक्रायण, कहोड़ के समान ही जिज्ञासु नारियों में गिनते हैं। गार्गी ने अन्य लोगों के समान ही याज्ञवल्क्य के ब्रह्मिष्ठ होने के अधिकार पर विरोध प्रकट किया था। बृ० उप० (३।६।१) में आया है कि जब गार्गी अपनी वितर्कना को और आगे बढ़ा ले जाती है तो याज्ञवल्क्य उसकी भर्त्सना करते हैं और कहते हैं कि यदि वह उसी प्रकार तर्क का आश्रय लेती चली जायेगी तो उसका सिर भ्रमित हो जायेगा। अन्य प्रश्नकर्ता याज्ञवल्क्य को बिना भगवान् की उपाधि के पुकारते हैं और गार्गी भी ऐसा ही कहती है (बृ० उप० ३।६।१, ३।८।२-६) । याज्ञवल्क्यस्मृति (३।११०) एवं बृ० उप० के अनुसार योगशास्त्र एवं स्मृति दोनों एक ही व्यक्ति की कृतियाँ हैं ( उस याज्ञवल्क्य की, जिसकी दो पत्नियाँ थीं, मैत्रेयी एवं कात्यायनी) और उस व्यक्ति की जिसके साथ गार्गी वाचक्नवी का दार्शनिक शास्त्रार्थ हआ था। योग-याज्ञ० के सम्पादक श्री पी० सी० दीवानजी ने गार्गी को याज्ञवल्क्य की पत्नी कहा है।२२ बृ० उप० ने केवल दो पत्नियों का उल्लेख किया है, किन्तु अब प्रश्न उठता है क्या याज्ञवल्क्य की तीन पत्नियाँ थी? श्री पी० सी० दीवानजी ने इस भारी प्रश्न को कुछ हलका कर दिया है और कहा है कि गार्गी का एक अन्य नाम मंत्रेयी भी था। हमारा सम्बन्ध यहाँ पर योग-सिद्धान्त से नहीं है, प्रत्युत इस प्रश्न से है कि क्या हम उस ग्रन्थ को, जो याज्ञवल्क्य का लिखा हुआ कहा गया है और जिसमें गार्गी को प्राचीन याज्ञवल्क्य की पत्नी कहा गया है (जब कि उपनिषद उसे केवल एक प्रगल्भ या वाचाल नारी के रूप में प्रकट करती है), उसी याज्ञवल्क्य का लिखा हआ माने जिसने बृ० उप० में ब्रह्मविद्या की उद्घोषणा की है और जो याज्ञवल्क्यस्मृति का भी प्रणेता कहा गया है, अथवा नहीं ? यह एक ऐसी स्थिति है जो योग-याज्ञवल्क्य (जिसकी ओर श्री दीवान्जी ने संकेत किया है) को मात्र मनगढन्त सिद्ध करती है। यदि समानरूपता की वास्तविकता थी तो श्लोक में बिना किसी मात्रा भाव के 'मैत्रेय्याख्या महाभागा' पढ़ा जा सकता था। अत: यह मानना सम्भव नहीं जंचता कि योग-याज्ञवल्क्य वही योगशास्त्र है जिसे याज्ञवल्क्य ने अपने नाम वाली स्मृति के पूर्व रचा था । कुछ अन्य बातें भी कही जा सकती हैं। श्री दीवानजी द्वारा सम्पादित ग्रन्थ ने तन्त्रों (५॥१०) एवं तान्त्रिकों (८।४ एवं २५) का उल्लेख किया है । किन्तु याज्ञवल्क्यस्मृति ने इन दोनों का कहीं भी कोई उल्लेख नहीं किया है प्रत्युत उसमें कहीं भी तान्त्रिक शब्दों या प्रणाली का उल्लेख नहीं हआ है। अत: श्री दीवानजी द्वारा सम्पादित योग २२. योगयाज्ञ० (११६-७) में आया है-तमेवं गुणसम्पन्नं नारीणामुत्तमा वधूः । मैत्रेयी च महाभागा गार्गी च ब्रह्मविद्वरा ॥ सभामध्यगता चेयमृषीणामुग्नतेजसाम् । प्रणम्य दण्डवद् भूमौ गार्येतद् वाक्यमब्रवीत् ॥ यहाँ दो 'च' द्रष्टव्य हैं, जो सामान्यतः यह व्यक्त करेंगे कि मैत्रेयो एवं गार्गी भिन्न हैं। ऐसा तर्क किया जा सकता है कि याज्ञवल्क्य से पढ़ लेने के उपरान्त (बृ० उप० में जैसा आया है) मैत्रेयी वहाँ (सभा में) उपस्थित थी, किन्तु वाद-विवाद में कोई भाग नहीं लिया, केवल गार्गी ने ही प्रश्नों की बौछार की थी। अध्याय १ के श्लोक ६ में मैत्रेयी के लिए 'उत्तमा वधूः' तथा गार्गी के लिए 'महाभागा' एवं ब्रह्मविद्वरा' का प्रयोग हुआ है। किन्तु ११४३ एवं ४१५ में गार्गो को याज्ञ० को भार्या कहा गया है और उसे "प्रिये' (४७) एवं वरारोहे' आदि शब्दों से सम्बोधित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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