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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास पर दोनों अद्वैत वेदान्त से पृथक् हैं। अद्वैत वेदान्त के अनुसार आत्मा की अन्तिम नियति है उसी एक ब्रह्म में समाहित या निमग्न हो जाना ।। एक अन्य बात पर विचार करना है। याज्ञवल्क्यस्मृति में याज्ञवल्क्य ने कहा है कि हृदय में दीपक के समान प्रकाशित होते हुए आत्मा की अनुभूति की जानी चाहिए, इस अनुभूति से आत्मा का पुनर्जन्म नहीं होता। याज्ञवल्क्य ने इतना और जोड़ दिया है कि योग की प्राप्ति के लिए मनष्य को वह आरण्यक२१ समझना चाहिए जिसे 'मैंने सूर्य से प्राप्त किया, तथा मेरे द्वारा उद्घोषित योगशास्त्र समझना चाहिए।' कर्मपुराण में आया है कि याज्ञवल्क्य ने योगशास्त्र का प्रणयन किया और ऐसा करने के लिए उन्हें भगवान् हर के द्वारा आदेश प्राप्त हुआ था। विष्णुपुराण (४।४।१०७) में उल्लिखित है कि हिरण्यनाभ ने जैमिनि के शिष्य तथा महान् योगीश्वर याज्ञवल्क्य से योग का ज्ञान प्राप्त किया। बृहदारण्यकोपनिषद् (२।४) में याज्ञवल्क्य अपनी पत्नी मैत्रेयी (जो अमरत्व की ओर उन्मुख थी तथा जिसे भौतिकता से किसी प्रकार का ल गाव अथवा मोह नहीं था) से यही कहते हैं कि वे उसे अमरत्व के मार्ग की व्याख्या बतायेंगे और प्रथम वाक्य में ही वे उससे 'निदिध्यास' (अर्थात् ध्यान) प्राप्त करने एवं अभ्यास करने की बात बताते हैं और उनके प्रथम व्याख्यान का प्रथम भाग इस प्रकार स्मरणीय शब्दों के साथ पूरा होता है-'आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः' (बृ० उप० २।४।५) । याज्ञवल्क्य द्वारा प्रणीत योगशास्त्र के ग्रन्थ का क्या तात्पर्य है, यह अभी विवादास्पद ही है। याज्ञवल्क्यस्मति के अतिरिक्त तीन अन्य ग्रन्थ हैं, जो याज्ञवल्क्य से सम्बन्धित हैं, यथ वृद्ध-याज्ञवल्क्य, योग-याज्ञवल्क्य एवं बृहद्-योगि-याज्ञवल्क्य । अन्तिम ग्रन्थ में महान् योगी याज्ञवल्क्य, गार्मी तथा अन्य मुनियों एवं विद्वान् ब्राह्मणों के बीच हुई बातचीत का विवरण है। याज्ञवल्क्य ने जो कुछ ब्रह्मा से प्राप्त किया है अथवा पढ़ा है, उसे सुनाया है। शूलपाणि की दीपकलिका (याज्ञ० ३।११० पर) में कहा गया है कि 'योगशास्त्र' 'योगि-याज्ञवल्क्य' ही है। किन्तु यह बात अभी संदिग्ध है। स्थानाभाव से ह नहीं कह सकेंगे। वास्तव में, 'योगि-याज्ञवल्क्य' उस ग्रन्थकार का ग्रन्थ नहीं हो सकता जिसने बहदारण्य योगशास्त्र (जैसा कि याज्ञ० ३।११० में वर्णित है) तथा याज्ञवल्क्यस्मृति का प्रणयन किया है । बृ० उप० (२।४।१ एवं ४।५१-याज्ञवल्क्यस्य द्वे भार्ये बभूवतुम त्रेयी च कात्यायनी च) में यह स्पष्ट रूप से आया है कि याज्ञवल्क्य की दो पत्नियाँ थीं, जिनमें एक थी मैत्रेयी, जिसका झकाव दर्शन अथवा अध्यात्म-शास्त्र की ओर था और दूसरी थी कात्यायनी, जो सांसारिक मोह में संलग्न थी। मैत्रेयी अमरत्व की प्राप्ति के ज्ञान के पीछे पड़ी हुई थी और वह जितने प्रश्न पूछती है उन सभी में वह याज्ञवल्क्य को ‘भगवान्' कहती है २१. ज्ञेयं चारण्यकमहं यदादित्यादवाप्तवान् । योगशास्त्रं च मत्प्रोक्तं शेयं योगमभीप्सता ॥याज्ञ० (३।११०); याज्ञवल्क्यो महायोगी दृष्ट्वात्र तपसा हरम् । चकार तन्नियोगेन कायशास्त्रमनुत्तमम् ॥ कूर्म० (१॥२५॥ ४४) । एह्यास्स्व व्याख्यास्यामि ते व्याचक्षाणस्य तु मे निदिध्यासस्वेति ।...आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । बह० उप० (२।२।४-५) । मिलाइए बृ० उप० (४।५।५-६), वे० सू० (४।१।१), छा० उप० (८७१): 'य आत्मापहतपाप्मा...सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः।' यह सम्भव है कि याज्ञ० (३३११०) एक प्रारम्भिक क्षेपक हो । किन्तु विश्वरूप से चलकर आगे के सभी टीकाकार इस उद्धरण को सच्चा मानते आये हैं, इसे याज्ञ० स्मृ० का एक अभिन्न एवं शुद्ध अंग मान लेना होगा, जब तक कि इसके विरोध में कोई अन्य साक्ष्य न मिल जाय। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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