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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २५७ सामर्थ्य के रूप में द्रष्टा ( पुरुष ) पाया जाता है" और यद्यपि वह शुद्ध है ( अर्थात् परिवर्तनहीन, या दोषरहित ) तथापि प्रतीत होता है मानो वह सभी अनुभूतियों का द्रष्टा है ( जो केवल बुद्धि से ही सम्भव है ) ।' सत्त्व, रज एवं तम नामक तीन गुणों की विशेषताएँ स्पष्ट एवं संक्षिप्त ढंग से योगसूत्र एवं सां० का० (१३) में दी हुई हैं । २० ऐसा कहा गया है--' जो दृश्य है वह प्रकाश ( सत्त्व), क्रिया ( रज) एवं स्थिति अर्थात् प्रमाद या आलस्य ( तम) के रूप में है, यही तत्त्वों एवं इन्द्रियों का सार है और इसका अस्तित्व आत्मा को अनुभव प्रदान करने एवं मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से है ।' गुणों का बहुधा उल्लेख हुआ है, यथा यो० सू० (१)१६, ४।१३, ३२, ३४ ) एवं सत्त्वगुण ( यो० सू० २४४१, ३।३५, ४६ एवं ५५ ) । यो० सू० ने तीन प्रमाणों की बात उठायी है ( १७ ), किन्तु उनकी परिभाषा नहीं की गयी, सांख्यकारिका ( ४ - ६ ) ने तीनों का उल्लेख किया है एवं परिभाषाएँ की हैं। वे दोनों आत्मा की अनेकता को स्वीकार करते हैं। यह द्रष्टव्य है कि व्यासभाष्य ( योगसूत्र ) में सांख्य-सिद्धान्तों की भरमार है और उसमें वाचस्पति के अनुसार पञ्चशिख का उल्लेख बारह बार तथा षष्टितत्र का उल्लेख एक बार हुआ है । यद्यपि योग ने सांख्य के कुछ मौलिक सिद्धान्तों को स्वीकार कर लिया है, तथापि दोनों में कुछ अन्तर भी है । सांख्या में ईश्वर को स्थान नहीं प्राप्त है, किन्तु योग में ईश्वर के अस्तित्व की बात पायी जाती है (यो० सू० ११२३ - २६ ), यद्यपि वह केवल गौण रूप में ही प्रतिष्ठापित है और सम्भवतः यह केवल सर्वसाधारण के विश्वास पर ही आधारित है, क्योंकि योगसूत्र ने कहीं भी स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा है कि ईश्वर विश्व का स्रष्टा है; वह जो कुछ कहता है वह यह है कि उसमें सर्वोच्च सर्वज्ञता पायी जाती है । वह आदि ऋषियों का आचार्य है और 'ओम्' के जप एवं उस पर ध्यान लगाने से योगी आत्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करता है। सांख्य एवं योग दोनों में परमार्थ है कैवल्य (सां० का० ६४, ६८ एवं योगसूत्र ३ ५०, ५५ एवं ४३४ ), किन्तु सांख्य सम्यक् ज्ञान के अतिरिक्त किसी अन्य अनुशासन की व्यवस्था नहीं करता, अर्थात् वह आध्यात्मिक एवं बौद्धिक है । किन्तु योग ने इस विषय में एक विशद मानस अनुशासन की व्यवस्था की है, केवल ज्ञान की अपेक्षा अभ्यास एवं प्रयास को अधिक महत्त्व एवं प्रधानता दी है तथा प्राणायाम एवं ध्यान पर विशेष बल दिया है । सांख्य ने आत्मा उद्धार एवं जन्म से छुटकारा (मुक्ति) पाने के लिए पुरुष एवं प्रकृति ( या गुण) एवं दोनों के अन्तर को भली भांति समझ लेना पर्याप्त माना है, किन्तु योग, दूसरी ओर, केवल इस दार्शनिक सरल मानसिक स्थिति तक पहुँच जाने पर ही सन्तोष नहीं करता, प्रत्युत वह इच्छा एवं संवेगों के क्रमबद्ध प्रशिक्षण एवं संयमन पर बल देता है । सांख्य एवं योग दोनों में प्रत्येक आत्मा नित्य है और व्यक्ति की नियति है प्रकृति एवं उसके विभिन्न स्वरूपों से मुक्ति पाना तथा सदैव वही ( अर्थात् शुद्ध स्वरूप में) बना रहना । यहीं १६. द्रष्टा दृशिमात्रः शुद्धोऽपि प्रत्ययानुपश्यः । यो० सू० (२।२० ) ; व्यासभाष्य में आया है - ' प्रत्ययानुपश्यो यतः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति । तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रत्यवभासते ।' मिलाइए सांख्यकारिका ( १६ ) -- तस्माच्च विपर्यासात्सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थं द्रष्टृत्वमकर्त भावश्च ॥ २०. प्रकाश - क्रिया-स्थितिशीलं भूतेन्द्रियात्मकं भोगापवर्गार्थं दृश्यम् । यो० सू० ( २०१८ ) ; प्रकाशीलं सत्त्वं क्रियाशीलं रजः स्थितिशीलं तम इति । एते गुणाः प्रधानशब्दवाच्या भवन्ति । एतद् दृश्यमित्युच्यते । व्यासभाष्य, मिलाइए सां० का० (१३) सत्त्वं लघु ... । ३३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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