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धर्मशास्त्र का इतिहास तन्त्रों एवं शाक्त ग्रन्थों में बहुत-सी बातें समान हैं, प्रमुख अन्तर यह है कि शाक्त सम्प्रदाय में देवी (या शक्ति) को परमोच्च शक्ति मान कर पूजा जाता है, किन्तु तन्त्रों (इनमें बौद्ध एवं जैन दोनों प्रकार के ग्रन्थ सम्मिलित हैं) में केवल देवी या शक्ति की पूजा तक ही सीमा नहीं रखी गयी है, प्रत्युत वह पूजा बिना ईश्वर-सम्बन्धी धारणा के या वेदान्तवादी या सांख्यवादी भी हो सकती है। डॉ० बी० भट्टाचार्य (गुह्यसमाजतन्त्र , पृ० ३४, साधनमाला, जिल्द २, पृ० १६) का कथन है कि वास्तविक तन्त्र ग्रन्थ के लिए शक्ति के तत्त्व का होना परमावश्यक है। किन्तु यह कथन केवल अतिकथन है। वायुपुराण (१०४ ॥१६) ने शाक्त को छह दर्शनों के अन्तर्गत रखा है।४ ।
ऋग्वेद में भी महान देवों की शक्तियों का उल्लेख है। किन्त शक्ति या शक्तियाँ परमात्मा की ही हैं. वह एक पृथक सृष्टि करने वाले तत्त्व के रूप में नहीं है। कभी-कभी तो शक्ति को कवि, पुरोहि मान के अंश रूप में व्यक्त किया गया है (यथा ऋ० १११३।१८, ११८३।३, ४।२२।८, १०।२५१५)। शक्ति शब्द ऋग्वेद में एक दर्जन बार एकवचन एवं बहुवचन में ५ बार इन्द्र के साथ (३२।१४, ५॥३१६, ७।२०।१०, १०१८८।१०), एक बार अश्विनों के साथ (ऋ० २।२६७), दो बार पितरों के साथ (१११०६। ३, ६७५६) एवं एक बार सामान्यत: देवों के साथ (१०।८८1१०, जिन्होंने अपनी शक्ति से अग्नि उत्पन्न की है) आया है। कहीं-कहीं 'शक्ति' के स्थान पर 'माया' शब्द प्रयुक्त हुआ है (ऋ० ६४७।१८)। 'शची' शब्द कई बार आया है ('शचीभि:' ३६ बार एवं 'शच्या' १२ बार) । 'शचीपति' ऋग्वेद में १६ बार आया है जिनमें एक बार अश्विनीकुमारों के लिए आया है (ऋ० ७६७१५)। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ऋग्वेद में 'शची' इन्द्र की पत्नी का द्योतक है (जैसा आगे चलकर ऐसा व्यक्त हो गया है), क्योंकि शची अधिक बार बहुवचन में है और अश्विनों को भी एक बार 'शचीपति' कहा गया है। इसी प्रकार 'शचीव:' ११ बार आया है, जिनमें ६ बार यह इन्द्र के लिए सम्बोधित है, किन्तु यह एक बार अग्नि के लिए (ऋ० ३।२१॥ ४) प्रयुक्त है और एक बार सोम के लिए (ऋ० ६८७६)। 'शक्ति' एवं 'शची' के साथ जो विचार लगे हैं वे हैं-सष्टि, रक्षा, वीरता एवं औदार्य (उदारता) से सम्बन्धित । ऋ० (११५६।४) में इन्द्र की शक्ति को 'देवी तविषी' कहा गया है, किन्तु 'शची' शब्द उस पद्य में नहीं आया है।
वाक् (वाणी) की शक्ति के विषय में एक उदात्त एवं उत्कृष्ट स्तोत्र (ऋ० १०११२५ नामक सूक्त) है, जहाँ पर वाक् को रुद्रों, आदित्यों, वसुओं एवं विश्वेदेवों से सम्बन्धित होने को कहा गया है और मित्र एवं वरुण, इन्द्र एवं अग्नि, अश्विनों, सोम, त्वष्टा, पूषा एवं भग को आश्रय देने के लिए उद्घोषित है। वाक् को रुद्र के लिए धनुष तानने को कहा गया है, जिससे कि ब्रह्म (स्तुति या ब्रह्मा. नामक देव) का नाशकारी शत्रु मारा जा सके । वाक् सभी लोकों में विराजमान है, उसका शरीर स्वर्ग को छूता है, वह पृथिवी एवं स्वर्ग से अतीत है और वह अपनी महत्ता से अति विशद या विशाल है। वाक् (वाणी) सारी शक्ति का मूल तत्त्व हो जाती है। निघण्ट (१।११) के अनुसार 'मेना', 'ग्ना' एवं 'शची' नामक तीन शब्द उन ५७ शब्दों में परिगणित हैं जिनका अर्थ वाक् होता है। तै० सं० (५।१।७।२) में मात्राएँ ‘ग्ना' कहीं जाती हैं। ऋ० (१११६४।४१) में वाक् का प्रहेलिका-मय विवरण है जो निरुक्त (१११४०) में विश्लेषित है। यह द्रष्टव्य है कि जिस प्रकार पश्चात्कालीन साहित्य में शिव से सम्बन्धित है, उसी प्रकार इन्द्राणी, वरुणानी, अग्नायी, रोदसी क्रम से इन्द्र,
१४. ब्राह्मं शैवं वैष्णवं च सौरं शाक्तं तथार्हतम् । षड् दर्शनानि चोक्तानि स्वभावनियतानि च ।(१०४।१६)॥
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