________________
तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र
उनके तर्क डा. भट्टाचार्य के तर्कों के समान ही कोई पुष्ट आधार नहीं रखते । डा० ए० एस० अल्तेकर ने अपने निबन्ध 'संस्कृत लिटरेचर इन तिब्बत' (ए० बी० ओ० आर० आई, जिल्द ३५, पृ० ५४-६६) में व्यक्त किया है कि किस प्रकार बौद्ध धर्म स्ट्रांग-त्सान-गैम्पो (६३७-६६३ ई०) के शासन काल में तिब्बत में प्रविष्ट हुआ । किस प्रकार लगभग ७५० ई० में उड़ीसा से पद्मसम्भव एवं कश्मीर से वैरोचन तिब्बत गये तथा किस प्रकार लगभग ४५०० पूस्तकें तिब्बती भाषा में अनवादित हई।
डा० बी० भट्टाचार्य ने इतना स्वीकार किया है कि बौद्ध तन्त्र बाह्य रूप में हिन्दू तन्त्र से बहुत कुछ मिलता-जुलता है (बुद्धिस्ट इसोटेरिज्म, भूमिका, पृ० ४७), किन्तु उन्होंने यह व्यक्त किया है कि विषयवस्तु, दार्शनिक सिद्धान्तों एवं धार्मिक दृष्टिकोणों में दोनों में कोई समानता नहीं है। बौद्ध धर्म हिन्दु देवों में विश्वास नहीं करता था अत: वह शक्ति या शक्तिवाद की चर्चा नहीं करता । जिस प्रकार हिन्दू तन्त्रों में पुरुषतत्त्व एवं स्त्रीतत्त्व क्रम से शिव एवं देवी हैं, उसी प्रकार बौद्धों ने प्रज्ञा (जो स्त्री है) एवं उपाय (पुरुष) दो तत्त्व रखे हैं , किन्तु यहाँ स्वरूप उलटा है । उन्हें शून्यता की धारणा पर शिव एवं देवी या शक्ति की धारणाओं से सम्बन्धित विचार जमाने थे ही । लक्ष्य एवं साधन (योग आदि) से सम्बन्धित विषयवस्तु एक-सी है, मन्त्र, गुरु, मण्डल आदि की पद्धति भी एक ही है। बौद्ध तन्त्र-सम्प्रदाय के अत्यन्त महत्त्व
एवं आरम्भिक ग्रन्थ हैं प्रज्ञोपायविनिश्चयसिद्धि एवं ज्ञानसिद्धि , जो ८वीं शती से जब कि शक्तिवाद एवं तन्त्रवाद भारत में भली भाँति सुदृढ हो चुके थे, पहले के नहीं हैं।
__'शाक्त' शब्द का अर्थ है शक्ति (जगत्-शक्ति) का भक्त या पूजक। ऐसा लगता है कि आठवीं शती के बहुत पहले से भारत के सभी भागों में, विशेषत: बंगाल एवं आसाम में शाक्त सम्प्रदाय फैल चुका था। विभिन्न नामों (यथा--त्रिपुरा, लोहिता, ष्डाशिका , कामेश्वरी) वाली शक्ति इस विश्व की सम्पूर्ण क्रिया के आदि तत्त्व (बीज तत्त्व) के रूप में धारित हुई और सामान्यत: देवी के रूप में पूजित होती है। 'देवीमाहात्म्य' शाक्तों के प्रमुख ग्रन्थों में एक है । शाक्त सम्प्रदाय की प्रमुख विशेषताएँ ये हैं--देव या इष्ट एक है और वह माँ के रूप में एवं संहार करने वाली शक्ति के रूप में होती है और पूजा-सम्बन्धी क्रियाएँ कछ ऐसी हैं जो कभी-कभी बड़ा घृणित रूप धारण कर लेती हैं। देवी की प्रशस्तियाँ अन्य पराणों में भी हैं, यथा वामन (१८-१६), देवीभागवत (३।२७), ब्रह्माण्ड (जिसमें ४४ अध्यायों में ललितामाहात्म्य है), मत्स्य (१३।२४-५४), जहाँ देवी के १०८ नाम एवं उसकी पूजा के १०८ स्थान उल्लिखित हैं), कूर्म (१।१२) । कूर्म (१।१२) में देवी को महामहिषमर्दिनी (६८), अनाहता, कुण्डलिनी (१२८) दुर्गा, कात्यायनी, चण्डी, भद्रकाली (१४३ एवं १४८) कहा गया है और ऐसा व्यक्त किया गया है कि वेद एवं स्मृतिविरोधी शास्त्र, जो लोगों में प्रसिद्ध हुए हैं, यथा-कापाल, भैरव, यामल, वाम, आर्हत, देवी द्वारा लोक को भ्रम में डालने के लिए प्रवर्तित हैं और वे केवल मोह एवं अज्ञान पर आधारित हैं। और देखिए ब्रह्मपुराण (१८१४८-५२) जहाँ देवी के नाम आये हैं और ऐसा कहा गया है कि जब देवी की पूजा मद्य, मांस एवं अन्य भोज्य पदार्थों से की जाती है तो वे प्रसन्न होती हैं और मनुष्य की मनोकामनाएं पूर्ण करती हैं । भद्रकाली अपेक्षाकृत प्राचीन नाम है (देखिए शांखायन गृह्यसूत्र (सै० बु० ई०, जिल्द २६, पृ० ८६) ।
१३. काली के रूप में देवी के ध्यानों में एक यों है--'शवारूढां महाभीमां घोरदंष्ट्री हसन्मुखीम् । चतुर्भुजां खडगमण्डवराभयकरां शिवाम् । मुण्डमालाधरां देवी ललज्जिह्वां दिगम्बराम् । एवं सचिन्तयेत्कालीं श्मशानालयवासिनीम् ॥ शाक्तप्रमोद में कालीतन्त्र (वेंकटेश्वर प्रेस संस्करण)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org