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धर्मशास्त्र का इतिहास आदि के उद्भावकों के रूप में मानना कोई सम्मान की बात नहीं है। किन्तु विद्वानों को सम्मान या असम्मान की भावना से दूर रह कर सत्य की खोज करनी होती है। श्री वैल्ली पोशिन (इंसाइक्लोपीडिया आव रेलिजिन एण्ड एथिक्स , जिल्द १२, पृ० १६३), विन्तरनित्ज़ एवं पेयने (शाक्तन , पृ० ७३) ने डा० भट्टाचार्य के मत के विरुद्ध पुष्ट प्रमाण दिये हैं, जिन्हें प्रस्तुत लेखक स्वीकार करता है । स्पष्ट है कि संस्कृत से सैकड़ों ग्रन्थ तिब्बती एवं चीनी भाषाओं में अनूदित हुए । भारत से ही तिब्बतियों एवं चीनियों ने ऋण लिया है । देखिए प्रो०लियाँग ची चाओ का निबन्ध 'चाइनाज डेट टु इण्डिया' (विश्वभारती क्वार्टरली, जिल्द २, १६२४-२५, प० २५१-२६१) जहाँ ऐसा कहा गया है कि सन् ६७ से ७८६ ई० तक २४ हिन्दू विद्वान् चीन आये। इसके अतिरिक्त कश्मीर से १३ विद्वान् आये और सन् २६५ से ७६० ई. तक जितने चीनी पढने के लिए भारत गये उनकी संख्या १८७ थी, जिनमें १०५ के नामों का पता चल गया है । इस विषय में हमें कोई प्रमाण नहीं मिलता कि तिब्बती या चीनी ग्रन्थों का अनुवाद संस्कृत में हुआ हो। इसके अतिरिक्त तीन महान चीनी यात्रियों ने भारत में बौद्ध तन्त्रों के अध्ययन की कोई चर्चा नहीं की है। वाटर्स (यवाँच्वांग्स ट्रैवेल्स इन इण्डिया, जिल्द १, पृ० ३६०) ने यात्री के जीवन की एक कथा कही है कि जब वह अयोध्या से आगे नौका से पूर्व की ओर गंगा में जा रहा था, ठगों ने उसे लूट लिया और उसकी बलि देवी दुर्गा को देनी चाही, किन्तु चीनी यात्री एक अन्धड़ से बच गया और ठगों ने डर कर उसे छोड़ दिया और उसका मान-सम्मान किया। और देखिए रेने ग्रौउस्सेट कृत 'इन दि फूटस्टेप्स आव बुद्ध' (पृ०. १३३-१३५) : जहाँ इस घटना का उल्लेख है। इससे प्रकट है कि ७वीं शती के पूर्व भारत में तन्त्र एवं शाक्त पूजा प्रचलित थी। ६५० ई० के पूर्व के किसी बौद्ध तान्त्रिक ग्रन्थ का उल्लेख नहीं मिलता; गुह्यसमाजतन्त्र एवं मञ्जुश्रीमूलकल्प ऐसे ग्रन्थ हैं, किंतु उनमें पश्चात्कालीन तत्त्व पाये जाते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कल्पना एवं काल दोनों यह बताते हैं कि हिन्दू धर्म पर बौद्ध, तिब्बती या चीनी तान्त्रिक ग्रन्थों का कोई ऋण नहीं है। देखिए सर चार्ल्सबेल (१६२४) कृत 'तिब्बत पास्ट एण्ड प्रजेण्ट' (पृ० २३, २५, २६), सरदार के० एम० पणिक्कर कृत 'इण्डिया एण्ड चाइना' (१९५७) पृ० ७०, म० म० डा० सतीशचन्द्र कृत 'इण्ट्रोडक्शन आव दि अल्फाबेट इन तिब्बत' । अन्तिम ग्रन्थ में ऐसा विचार प्रकट किया गया है कि तिब्बत में मगध से सातवीं शती में अक्षर आये, जिससे सिद्ध होता है कि कश्मीर में प्रचलित भारतीय अक्षरों पर आधारित लिपि तिब्बत में सर्वप्रथम ६४० ई० में प्रविष्ट हुई, और यह भी सिद्ध होता है कि तान्त्रिक बौद्ध पद्मसम्भव को तिब्बती राजा ति-सोन-दे-त्सोन (७४६-७८६) ने शान्तरक्षित बोधिसत्त्व के कहने पर उड्डियान से बुलाया और तिब्बत में रहने को प्रेरित किया। बुंजियू नजियो के 'केटालॉग आव त्रिपिटक' (आक्स- फोर्ड, १८८३), ऐपेण्डिक्स २, पृ० ४४५ सं० १५५ से पता चलता है कि अमोघवज्र ने ७४६ एवं ७७१ ई० के बीच में बहुत-से ग्रन्थ अनुवादित किये और वे ७७४ ई० में मर गये और उन्हीं के प्रभाव से चीन देश में तन्त्र सिद्धान्त का प्रचलन हआ । बाण के ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि भारत में ६०० ई० के पूर्व मद्य एवं मांस के साथ चण्डिका की पूजा प्रचलित थी, श्रीपर्वत तान्त्रिक सिद्धियों के लिए प्रसिद्ध था, शिवसंहिताएँ विद्यमान थीं, श्मशान में एक करोड़ बार मन्त्र-जप से सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती थीं तथा कृष्ण पक्ष की अमावस्या जप एवं जादू-टोने के लिए उचित तिथि थी। अत: यह अत्यन्त सम्भव है कि शाक्त या तान्त्रिक सिद्धान्त तिब्बत एवं चीन में भारत से ही गये, न कि भारत में उन दोनों देशों से आये। प्रो० पी० वी० बापट ('बौद्ध मत के २५०० वर्ष', पृ० ३६०-३७६) ने डा० वी० भट्टाचार्य का अनुसरण किया है और यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि तिब्बती तन्त्रवाद हिन्दू तन्त्रवाद से प्राचीन है, किन्तु
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