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________________ २५२ धर्मशास्त्र का इतिहास ( लन्दन, १६४७); पाल टुक्सेन कृत 'दि रिलिजंस आव इण्डिया' (कोपेन हैगेन, १६४६ ) ; 'बर्नार्ड बूमेज कृत 'टिबेटन योग' ; एलेन डैनीलू कृत 'योग दि मेथड आव री-इण्टीग्रेशन' (लन्दन, १६४६ ) ; डब्लू० जी० इवांस- वेट्ज कृत 'दि टिबेरेटन बुक आव दि ग्रेट लिबरेशन' (आक्सफोर्ड, १६५४ ) ; डा० राधाकृष्णन एवं सी० ए० मूर कृत 'सोर्स बुक आव इण्डियन फिलॉसॉफी'; मेसिया इलियादे कृत 'योग, इम्मॉर्टलिटी एण्ड फीडम' ( लन्दन १६५८ ); प्रो० एस० एस्. गोस्वामी कृत 'हठयोग, ऐन एडवांस्ड मेथड आव फिजिकल ऐजूकेशन एण्ड कॉसेण्ट्रेशन' (एल० एन० फाउलर, लन्दन १६५६ ); मौनी साधु कृत 'कॉस्ट्रेशन' (लन्दन, १६५६ ) ; ए० कोयेस्लर कृत 'दि लोटस एण्ड दि रॉबॉट' ( लन्दन, १६६० ) । पतञ्जलि के योगसूत्र के बहुत-से संस्करण छप हैं, जिनमें व्यास का भाष्य एवं वाचस्पति की टीका (तत्त्ववैशारदी) भी सम्मिलित है । प्रस्तुत लेखक सूत्र के केवल दो या तीन संस्करणों एवं टीकाओं की ही चर्चा करेगा, जिनमें एक है पं० राजाराम शास्त्री बोडस कृत संस्करण ( निर्णयसागर प्रेस में सुन्दर ढंग से मुद्रित ) और दूसरा है आनन्दाश्रम संस्करण, जिसमें वाचस्पति और राजा भोज की टीकाएँ हैं । काशी संस्कृत सीरीज में योगसूत्र का प्रकाशन ६ टीकाओं के साथ हुआ है, यथा-- भोजराज कृत राजमार्तण्ड, भावा-गणेश कृत प्रदीपिका, नागोजि भट्टकृत वृत्ति, रामानन्दयतिकृत मणिप्रभा, अनन्त देवकृत चन्द्रिका एवं सदाशिवेन्द्र सरस्वतीकृत योगसुधाकर । अन्य दर्शनों के सूत्रों की अपेक्षा योगसूत्र अति संक्षिप्त है । यह चार पादों में विभाजित है, यथा -- समाधि, साधना, विभूति एवं कैवल्य । इसमें कुल १६५ सूत्र ( ५१+ ५५ + ५५ + ३४ ) हैं । डा० राधाकृष्णन ने 'इण्डियन फिलॉसॉफी ( खण्ड २, १६३१, पृ० ३४१-३४८ ) में मत प्रकाशित किया है कि योगसूत्र का लेखक ३०० ई० के पश्चात् का नहीं हो सकता । प्रो० एस० एन् दासगुप्त ने 'हिस्ट्री आव इण्डियन फिलॉसॉफी' (खण्ड १,पृ० २२६-२३८) में दोनों पतञ्जलियों को एक माना है और कहा है कि योगसूत्र का लेखक ई० पू० दूसरी शती में हुआ। जैकोबी एवं उनकी बात को स्वीकार करने वाले कीथ का कथन है कि योगसूत्र ( १।४०) ९ का वचन 'योगी का स्वामित्व परमाणु से लेकर महत्तत्त्व तक विस्तृत होता है' आज के विश्व के परमाणु-सिद्धान्त की ओर संकेत करता है। यह एक ऐसा उदाहरण है जो यह सिद्ध करता है कि पश्चिम के बड़े बड़े लेखक भी सीधे-सादे शब्दों में पश्चात्कालीन सिद्धान्तों की गन्ध पाते हैं, जिसके फलस्वरूप वे प्राचीन ग्रन्थों को पश्चात्कालीन रचित कह देते हैं । उपनिषदों न े आत्मा को अणु से भी महान् कहा है, और यही बात महाभारत ने भी उसी शब्दावली में कही है। प्रमाण नहीं है कि योगसूत्र ने उसी अणु-सिद्धान्त की ओर संकेत किया है जिसे गया है और न ही कहा जा सकता कि इसने उपनिषदों एवं महाभारत के हमें उस आरम्भिक परम्परा पर भी विचार करना है जो भोजदेव की टीका (सन् १०५५ ई० के पश्चात् भी छोटा कहा है और उसे महान् से यह समझने के लिए कोई प्रतीत्यात्मक वैशेषिक सिद्धान्त में प्रतिपादित किया शब्दों का अन्वय मात्र किया है । ८. अणोरणीयान् महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम् । कठोपनिषद् (२०२०), श्वे० उप० ( ३।२० ) ; 'अणोरणीयो महतो महत्तरं तदात्मना पश्यति युक्त आत्मवान् । शान्तिपर्व ( २३२/३३ ) ; योगसूत्र (११४०) -- 'परमाणु परममहत्त्वान्तोऽस्य वशीकारः । शब्दानामनुशासनं विदधता पातञ्जले कुर्वता, वृत्ति राजमृगांकसंज्ञकमपि व्यातन्वता वैद्यके । वाक्चेतोवपुषां मलः फणिभृतां भर्त्रेव येनोद्धृतस्तस्य श्रीरणरंग मल्लनुपतेर्वाचो जयन्त्युज्ज्वलाः ॥ योगसूत्र पर राजमार्तण्ड नामक वृत्ति का पाँचवां भूमिका- श्लोक । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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