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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २५१ क्रम से विष्णु एवं गरुड़ के रूपों में परिवर्तित हो गये । यह द्रष्टव्य है कि योगसूत्र (२०५५) के भाष्य ने कतिपय मत प्रकाशित किये हैं, किन्तु जंगीषव्य के मत को प्रमुखता दी है। यो० सू० (३।१८) के भाष्य ने आवट्य एवं जंगीषव्य के संवाद का उल्लेख किया है और वहां जैगीषव्य का मत प्रकाशित किया गया है कि कैवल्य के दृष्टिकोण से सन्तोष का सुख भी दुःख ही है, यद्यपि इन्द्रियवासनाओं की तुलना में सन्तोष सुख ही कहा जा सकता है। बुद्धचरित (अध्याय १२) में आया है कि जब गौतम (भावी बुद्ध) अराड नामक दार्शनिक के पास पहुँचे तो उन्होंने गौतम से मोक्ष-सम्बन्धी अपनी भावना का उल्लेख किया और जैगीषव्य, जनक एवं वृद्ध-पराशर को उन व्यक्तियों में उल्लिखित किया जो उस मार्ग की सहायता से मुक्त हो चुके थे। __उपर्युक्त उक्तियों से प्रकट होता है कि जंगीषव्य ईसा के बहुत पूर्व ही योग के एक महान् आचार्य हो चुके थे और सम्भवतः उन्होंने योग पर कोई ग्रन्थ लिखा जो अभी अनुपलब्ध है। __ योगसूत्र (सम्पूर्ण का कुछ अंश), पातंजल भाष्य एवं वाचस्पति की टीका के बहुत-से अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं, यथा-डा. राजेन्द्रलाल मित्र द्वारा, जिसमें मूल एवं राजमार्तण्ड नामक टीका है (बिब्लियोथिका इण्डिका, १८८३); स्वामी विवेकानन्द का राजयोग (खण्ड १, १६४६), जिसमें अनुवाद एवं सूत्रों की व्याख्या है; डा० गंगानाथ झा (बम्बई, १६०७); रामप्रसाद (पाणिनि आफिस, इलाहाबाद, १६१०); प्रो० जे० एच० बुड्स (हार्वर्ड ओरिएण्टल सीरीज, १६१४); जेराल्डाइन कोस्टरकृत 'योग एण्ड वेस्टर्न साइकोलॉजी (लन्दन, १६३४); पुरोहित स्वामीकृत अनुवाद (डब्लू ० बी० यीट्स की भूमिका, फेबर एण्ड फेबर, लन्दन, १६३७); जिसमें सिद्धासन, बद्धपद्मासन, पश्चिमोत्तानासन, भुजङगासन, विपरीतकरणी एवं मत्स्येन्द्रासन के चित्र दिये हुए हैं; कृष्णजी केशव कोल्हटकर कृत 'भारतीय मानस-शास्त्र' या 'पातञ्जल-योग-दर्शन' (प्रकाशक-के० बी० धवले, बम्बई, १६५१), जो एक विस्तृत ग्रन्थ है (१०५१ पृष्ठों में)। योग पर लिखे गये भारतीय एवं पाश्चात्य लेखकों के ग्रन्थों की संख्या बहुत अधिक है । उनमें बहुत-से प्रस्तुत लेखक द्वारा पढ़े नहीं जा सके हैं। कुछ पठित ग्रन्थों की सूची नीचे दी जा रही है। राजयोग (विवेकानन्द के ग्रन्थों का पूर्ण संग्रह, १६४६, मायावती, खण्ड १, पू० ११६-३१३); डब्लू हॉप्किन्स कृत 'योग टेकनीक इन दि ग्रेट एपिक' (जे० ए० ओ० एस्, खण्ड २२, १६०१, पृ० ३३३-३७६), प्रो० एस० एन्० दासगुप्त कृत 'योग ऐज ए फिलॉसॉफी एण्ड रिलिजन' (लन्दन, १६२४) एवं 'योग फिलॉसॉफी' (कलकत्ता यूनि०, १६३०); डा० जे. डब्ल० हावर कृत 'डाई आन्फ्रांज डर योगप्रैक्सिस इम अल्टेन इण्डीन' (स्टुटगार्ट, १९२२); एवं 'उर योग अल्स होल्वेग नच डेन इण्डीश्चेन क्वेलेन डर्गस्तेल्त' (स्टुटगार्ट, १६३२), यह एक बड़ी सावधानी से लिखा गया क्रमबद्ध ग्रन्थ है; डा. राधाकृष्णन कृत 'इण्डियन फिलॉसॉफी (खण्ड २, पृ० ३३६-३७३, लन्दन, १६३१); डा० जे० जी० रेले कृत 'दि मिस्टिरिएस कुण्डलिनी (तारापोरवाला एण्ड संस, बम्बई, १६२७); फेलिक्स गुयोत कृत 'योग, दि साइस आव हेल्थ' (अंग्रेजी अनुवाद, लन्दन १६३७, जिसमें हठयोग के सिद्धान्त प्रतिपादित हैं), डा० के० टी० बेहनन कृत 'योग, ए साइण्टिफिक इवलुएशन' (मैक्मिलन एण्ड कम्पनी, न्यूयार्क, १६३७); डब्लू० वाई० इवांसवेंट्ज कृत' 'टिबेटन योग एण्ड सिक्रेट डॉक्ट्रिन' (आक्सफोर्ड, १६२७); पाल ब्रण्टनकृत 'ए सर्च इन सीक्रेट इण्डिया' ६. भगवाजगीषव्य उवाच । विषयसुखापेक्षयवेदमनुत्तम् सन्तोषसुखमुक्तम् । कैवल्य सुखापेक्षया दुःखमेव । भाष्य (यो० सू० ३।१८) । सन्तोष पांच नियमों में एक है (यो० सू० २।३२) । यो सू० (२।४२) में आया है-सन्तोषावनुत्तमः सुखलाभः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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