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धर्मशास्त्र का इतिहास एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है--क्या वेदान्तसूत्र के लेखक ने योगसूत्र की ओर संकेत किया है ? प्रस्तुत लेखक का मत है कि ऐसी बात नहीं है। किन्तु वेदान्तसूत्र ने योग के सिद्धान्तों की ओर अवश्य संकेत किया है, जो कठ, मुण्डक, श्वेताश्वतर एवं अन्य उपनिषदों के पूर्व विकसित हो चुके थे ।
शान्तिपर्व में उल्लिखित है कि सांख्य के वक्ता परमर्षि (सबसे बड़े ऋषि) कपिल थे, हिरण्यगर्भ योग के प्राचीन ज्ञाता थे, कोई अन्य इसे जानने वाला नहीं था; अपान्तरतमा वेदाचार्य थे जिन्हें कुछ लोग प्राचीनगर्भ ऋषि कहते थे। गत अध्याय में कहा गया है कि सांख्य, योग, वेदारण्यक एवं पञ्चरात्र एक हैं और एक-दूसरे के अंग हैं। शान्ति० (३२६।६५) में हिरण्यगर्भ को योगशास्त्र से सम्बन्धित कहा गया है। अनुशासन० (१४:३२३, जहाँ उपमन्यु ने महादेव से कहा है) में सनत्कुमार को योग का उसी प्रकार प्रवर्तक कहा गया है जिस प्रकार कपिल को सांख्य का। अहिर्बुध्न्यसंहिता (१२।३२-३) में आया है कि हिरण्यगर्भ ने सर्वप्रथम दो योग संहिताओं की व्याख्या की, जिनमें एक का नाम था 'निरोधयोग' तथा दूसरी का कर्मयोग; निरोधयोग को पुनः १२ भागों में बांटा गया था। मामती ने वे० सू० (२।७।३) पर लिखा है कि इस सूत्र ने हिरण्यगर्भ एवं पतञ्जलि के योगशास्त्र की प्रामाणिकता को पूर्णरूपेण समाप्त नहीं किया है। विष्णुपुराण ने सम्भवत: हिरण्यगर्भ के दो श्लोक उद्धृत किये हैं। वाचस्पति ने अपनी टीका (योगसूत्र १११) में कहा है कि योगी-याज्ञवल्क्य ने हिरण्यगर्भ को योग का उद्घोषक माना है। वाचस्पति ने पतञ्जलि के योगसूत्र को योग याज्ञवल्क्य-स्मृति से पश्चात्कालीन माना है । अतः यह प्रायः निश्चित-सा है कि वे० सू० ने उस योग-पद्धति के, जो शान्तिपर्व को विदित थी, सिद्धान्तों का खण्डन किया है।
- शल्यपर्व (अध्याय ५०) में महान् भिक्षु योगी जैगीषव्य की तथा सारस्वत-तीर्थ पर रह रहे असित नामक गृहस्थ की गाथा कही गयी है। शान्तिपर्व (अध्याय २२२, चित्रशाला २२६) में जंगीषव्य एवं असित के बीच संयोग के विषय में एक लम्बा संवाद पाया जाता है, जिसका एक श्लोक यहाँ उद्धृत किया जाता है-'निन्दाप्रशंसे चात्यर्थ न वदन्ति पारस्य ये। न च निन्दाप्रशंसाभ्यां वित्रियन्ते कदाचन', जिसका अर्थ है 'योगी लोग अन्य लोगों की निन्दा एवं प्रशंसा के रूप में बातचीत नहीं करते और न अन्य लोगों द्वारा की गयी निन्दा एवं प्रशंसा से उनके मन कभी प्रभावित ही होते हैं।' उसी अध्याय में जैगीषव्य को ऐसे व्यक्ति के रूप में उल्लिखित किया गया है जो न तो कभी क्रोधी होता और न कभी आह्लादित होता है। वराहपुराण (४।१४) में आया है कि कपिल एवं योगिराज जैगीषव्य राजा अश्वशिरा के पास, जिन्होंने अश्वमेध के उपरान्त अवभृथ स्नान कर लिया था, आये और
६. सांख्यं योगं ... नाना मतानि वै ॥ सांस्यस्य वक्ता कपिलः परमषिः स उच्यते । हिरण्य गर्भो योगस्य वेत्ता ( वक्ता ) नान्यः पुरातनः ॥ अपान्तरतमाश्चव वेदाचार्यः स उच्यते। प्राचीनगर्भ तमषि प्रवदन्तीह केचन ॥ शान्ति० (३३७१५६-६१, चित्रशाला प्रेस संस्करण ३४६६४-६५)। और देखिए 'सांस्यं योगः पञ्चरात्रं वेदारण्यकमेव च ॥ ज्ञानान्येतानि ब्रह्मर्षे लोकेषु प्रचरन्ति हि ॥शान्ति० (३३७।१); एवमेकं सांख्ययोगं वेदारण्यकमेव च ॥परस्पराङ्गान्येतानि पञ्चरात्रं च कथ्यते। एष एकान्तिनां धर्मो नारायणपरात्मकः॥ शान्ति० (३३६५७६, चित्रशाला संस्करण ३४८।८१-८२)। सम्भवतः 'वेदारण्यक' बृहदारण्यक एवं छान्दोग्य उपनिषदों की ओर संकेत करता है, जिनमें 'निदिध्यास', जीव एवं ब्रह्म की अभिन्नता, यथा-'तत्त्वमसि' जैसे बचन आये हैं। वायुपुराण में परमर्षि की परिभाषा यों दी हुई है-'निवृत्तिसमकालं तु बुद्धयाऽव्यक्तमृषिः स्वयम् । परं हि ऋषते यस्मात्परमर्षिस्ततः स्मृतः ॥ (५६-६०), देखिए यही इलोक ब्रह्माण्ड० (३॥३२॥८६) में।
(७) सनत्कमारो योगानां सांख्यानां कपिलो ह्यसि । अनुशासन० (१४॥३२३) ।
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