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________________ योग एवं धर्मशास्त्र २४६ करती है, प्रत्युत योग के कुछ स्तरों एवं उसकी पद्धति की भी व्यवस्था करती है, जिनके द्वारा परमात्मा की अनुभूति होती है। अड्यार से श्री ए० महादेव शास्त्री (१९२०) द्वारा लगभग २० योग-उपनिषदों का प्रकाशन हुआ है, किन्तु उनका तिथि-क्रम बहुत ही अनिश्चित है और उनमें अधिकांश महाभारत, मन और सम्भवतः योगसूत्र के पश्चात् प्रणीत हुई हैं, अतः हम उन पर कुछ नहीं लिखेंगे । उनकी ओर बहुत ही कम संकेत किया जायगा । पाणिनि ने 'यम' एवं 'नियम' (जो योग के दो अंग हैं ) दो शब्दों , योग एवं 'योगिन्' को 'युज्' धातु से 'घिनुण्' (अर्थात् इन्) प्रत्यय के साथ निष्पन्न माना है।'' आपस्तम्बधर्मसूत्र (११८।२३।३-६) ने एक श्लोक उद्धत किया है, जिसका अर्थ यों है-इस जीवन में दोषों का सम्पूर्ण नाश योग से होता है, विज्ञ व्यक्ति उन दोषों का जो सभी प्राणियों को हानि पहुँचाते हैं, मलोच्छेद करके शान्ति (मोक्ष) की प्राप्ति करते हैं। इस धर्मसत्र ने १५ दोषों का उल्लेख किया है. यथा क्रोध, काम, लोम, कपट आदि, जिनका नाश योग से होता है । उसमें इन दोषों के विरोधी गुणों का भी उल्लेख है। इससे प्रकट होता है कि ई० पू० चौथी या पांचवीं शताब्दी में मन को अनुशासित करने के लिए योग नाम का अनुशासन पर्याप्त रूप से विकसित हो चुका था। वे०सू० (२।११३) से झलकता है कि सूत्रकार के समक्ष योग-सिद्धान्तों का एक वर्ग उपस्थित था, जिनमें कुछ सांख्य के अनुरूप थे। सूत्रकार को 'समाधि' का ज्ञान था (वे० सू० २॥३॥३६) । इतना ही नहीं, वे० सू० (४।२।२१) ने योगियों का उल्लेख किया है और सांख्य एवं योग को स्मातं (श्रौत नहीं) रूप में पृथक् माना है। शंकराचार्य ने वे० सू० (१।३।३३) की टीका में योगसूत्र (२०४४-स्वाध्यायादिष्टदेवतासंप्रयोगः ) को उद्धृत किया है और वे० सू० (२।४।१२) में सम्भवतः उन्होंने स्वीकार किया है कि योगसूत्र वेदान्तसूत्र के पहले प्रणीत हुआ। उन्होंने उस सूत्र की दूसरी व्याख्या में योगसूत्र (११६) को उद्धृत किया है। ४. योग-उपनिषदें पश्चात्कालीन कृतियां हैं। इस पर संक्षेप में यहां कहा जा रहा है । गोरक्षशतक के श्लोक १०-१४ (जो आधार एवं स्वाधिष्ठान चक्रों का वर्णन करते हैं) ध्यानबिन्दु० (श्लोक ४३-४७) एवं योगचूड़ामणि (श्लोक ४-६) में थोड़े अन्तर के साथ पाये जाते हैं। प्राणायाम के वर्णन में शाण्डिल्य उपनिषद् ने 'तदेते श्लोका भवन्ति' के साथ कुछ ऐसे श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें कुछ गोरक्षशतक में पाये जाते हैं। यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि शाण्डिल्य ने गोरक्षशतक से उधार लिया है, किन्तु ऐसा सम्भव है। योग की विभिन्न शाखाओं पर सभी प्राचीन एवं मध्यकालीन ग्रन्थ अभी तक उपलब्ध नहीं हो सके हैं और इसलिए इस बात की सम्भावना हो सकती है कि शाडिल्य एवं अन्य योग उपनिषदों ने किसी ऐसे प्राचीन ग्रन्थ से उद्धरण लिये हों जो अभी तक प्रकाश में नहीं आ सका है। ५. यमः समुपनिविषु च पा० (३।३।६३); एषु अनुपसर्गे च यमेरप् वा । . . . नियमः नियामः । यमः यामः । सि० को० । 'याम' का अर्थ है प्रहर (पूरे दिन का १/८ भाग), जब कि 'यम' का अर्थ है 'नियन्त्रण' 'यम्यते चित्तं अनेन ।' पाणिनि (३।२।१४२) पर काशिका की टिप्पणी है--'युज समाधौ दिवादिः । युजिर योगे रुधादिः । द्वयोरपि ग्रहणम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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