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धर्मशास्त्र का इतिहास
न्याच्च) ‘उसे एक व्रत करना चाहिए, यथा साँस लेना एवं साँस छोड़ना ।' वेदान्तसूत्र ( २1१1३ ) में आया है कि सांख्य सिद्धान्त को हराने के लिए प्रयुक्त तर्क द्वारा योग भी हरा दिया गया है ( एतेन योग: प्रत्युक्तः) । शंकराचार्य द्वारा उपस्थापित सांख्य-योग सम्बन्धी धारणा पहले ही व्यक्त कर दी गयी है ( गत अध्याय में ) । उन्होंने पूर्वपक्ष में यह व्यक्त किया है कि वेद ने सम्यक् ज्ञान के लिए योग को एक साधन माना है ( वृ० उप० २।४।५ ) । उन्होंने पुन: कहा है कि श्वेताश्व० उप० में योग की व्याख्या विस्तार से हुई है, जिसमें सर्वप्रथम ( योगाभ्यास के लिए ) उचित आसन का उल्लेख है, यथा - शरीर को सीधा रखकर तीन स्थानों को ऊँचा रखना, यथा छाती, गले एवं सिर को (२१८) । शंकराचार्य के इन शब्दों से कि योगशास्त्र में भी योग को सम्यक् ज्ञान का साधन बताया गया है, यह प्रकट होता है कि उनके समक्ष योगशास्त्र का ग्रन्थ था, जिसमें 'अथ... योग : ' शब्द आये थे, किन्तु उन्होंने 'योगसूत्र' शब्द का उल्लेख नहीं किया है, अतः सम्भवतः उन्होंने योगसूत्र की ओर संकेत नहीं किया है । यदि कल्पना करने की छूट दी जाय तो यह कहा जा सकता है कि सम्भवतः शंकराचार्य' न' 'योगशास्त्र' शब्द से याज्ञवल्क्य द्वारा लिखे गये तथाकथित योगशास्त्र ( याज्ञ० स्मृति ३।११०, योगशास्त्रं च मत्प्रोक्तं ) की बात कही है। शंकराचार्य ( वे० सू० २।१।३ ) ने यह स्वीकार किया है कि योग का एक भाग उन्हें मान्य है, किन्तु अन्य भागों का वेद से विरोध है | मुण्डकोपनिषद् ( २२२२६) ने शंकराचार्य के मत से 'ओमिति ध्यायथ आत्मानम्' शब्दों में 'समाधि' की व्यवस्था दी है । उपनिषदों में 'मुनि' एवं 'यति' शब्दों का एक ही अर्थ है, यथा बृ० उप० ४ । ४ । २२ ) में आया है -- ' इस आत्मा के ज्ञान के उपरान्त व्यक्ति मुनि हो जाता है, किन्तु मुण्डकोपनिषद् ( ३।१।५ ) में आया है-'सत्य, तप, सम्यक् ज्ञान तथा सभी समयों में ब्रह्मचर्य व्रत से इस आत्मा की अनुभूति होती है, आत्मा इस शरीर के भीतर (अन्तः में ) ( प्रकाश के समान ) निवास करता है, वह पवित्र है, उसे केवल पवित्र मुनि ही जानते हैं । कठोपनिषद् ( ३।१३ ) में आया है कि विज्ञ व्यक्ति को मन में वाणी ( वाणी एवं मन, जैसा कि मूल में आया है) को संयमित करना चाहिए, उसे महान् आत्मा के भीतर ज्ञान को रखना चाहिए, और जो शान्त है उस महान को आत्मा के भीतर रखना चाहिए। इस प्रकार उपनिषदें 'योग' शब्द का न केवल प्रयोग
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३. एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति । एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्तः प्रव्राजन्ति । बृह० उप० (४/४/२२ ) ; देखिए कठ० (४११५ ) – 'यथोदकं . मुनविजानत आत्मा भवति गौतम ।' कौषीतकि - उप० (२।१५) में 'परि वा व्रजेत्' आया है । अन्य उपनिषदों में 'परिव्राजक' शब्द नहीं आया है । पाणिनि के काल में यह शब्द सबको ज्ञात था, यथा---' मस्कर -मस्करिणौ वेणुपरिव्राजकयोः' (६।१।१५४), जिसमें ऐसा कहा गया कि 'मस्कर' का अर्थ है बाँस का दण्ड (डण्डा) और 'मस्करिन्' का परिव्राजक । महाभाष्य ने टीका को है कि 'मस्करिन्' को वैसा इसलिए नहीं कहा जाता कि वह अपने हाथ में बाँस का दण्ड लेकर चलता है, प्रत्युत इसलिए कि वह लोगों को उपदेश देता है कि वे अपने वांछित पदार्थों की प्राप्ति के लिए क्रियाएँ न करें, लोगों के लिए निश्चलता अपेक्षाकृत अच्छी है-'मा कृत कर्माणि मा कृत कर्माणि शान्तिर्वः श्रेयसीत्याहा तो मस्करी परिव्राजक: ।' कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् । अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् ॥ गीता ( ५।२६ ) ; यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि । ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेतद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥ कठ० ( ३।१३ ) । शंकराचार्य (वे० सू० ११४ | ने व्याख्या की है— 'वाचं मनसि संयच्छेद् वागादिवाह्येन्द्रियव्यापारमुत्सृज्य मनोमात्रेणावतिष्ठेत् ।' वे 'मनसी' को 'मनसि' के समान आर्षप्रयोग मानते हैं ।
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