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________________ २३८ धर्मशास्त्र का इतिहास कहती है-'आपने अवश्य पञ्चशिख से मोक्ष के सम्पूर्ण सिद्धान्त को, उसकी प्राप्ति के साधनों के साथ, उन उपनिषदों के वाक्यों के साथ जो उसकी व्याख्या करते हैं या (ध्यान के) सहायकों के साथ और निश्चित निष्कर्षों के साथ सुन लिया है।' उपर्युक्त अन्तिम वचन स्पष्ट रूप से मोक्ष के विषय में उपनिषदों की ओर संकेत करता है और पूर्ववर्ती बातें जनक के सम्बन्ध में विषयासक्ति से छुटकारे की ओर संकेत करती हैं (३०८१३७, मुक्तसंग)। बृहदारण्यकोपनिषद् (३।१) में विदेह के राजा जनक द्वारा सम्पादित यज्ञ का उल्लेख है। राजा जनक ने उपस्थित ब्राह्मणों के मध्य यह घोषणा की थी कि मैं उस ब्राह्मण को, जो अत्यन्त गम्भीर रूप से विद्वान और ब्रह्मिष्ट होगा, एक सहस्र गायें दूंगा। याज्ञवल्क्य ने अपने शिष्य को यह आज्ञा दी कि वह गायों को हाँक ले चले, इस पर एक विद्वत्तापूर्ण प्रश्नोत्तर-विमर्श उठ खड़ा हुआ, जिसमें क्रुद्ध ब्राह्मणों एवं एक नारी ने भाग लिया और प्रश्नों की बौछार याज्ञवल्क्य को सहनी पड़ी। प्रश्नकर्ता थे-अश्वल (जनक के पुरोहित) जारत्कारव आर्तभाग, भुज्य, लाह्यायनि, उषस्त चाक्रायण, कहोड़ कौषीतकेय, गार्गी वाचक्नवी, उद्दालक आरुणि, विदग्ध शाकल्य (३।१६, जिसका अन्त 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' के साथ हुआ है)। बृह० उप (४।२) में ऐसा आया है कि जनक याज्ञवल्क्य के पास गये, श्रद्धा से उनके समक्ष झुके और प्रार्थना की--मुझे सिखाइए । याज्ञवल्क्य ने उनसे कहा--'आपने वेदाध्ययन किया है, आचार्यों ने आपके समक्ष उपनिषदों की व्याख्या की है, किन्तु जब आप इस शरीर का त्याग करेंगे, तो कहाँ जायेंगे?' जनक ने कहा कि वे इस प्रश्न का उत्तर नहीं जानते और ऋषि से प्रार्थना कि वे उन्हें इस विषय में प्रकाश दें। इसके उपरान्त एक लम्बा विवेचन चल पड़ा है (ब० उ० ४१२...) जिसमें प्रसिद्ध वचन ‘स एष नेति नेत्यात्मा अगृह्यो न हि गृह्यते. . .असङगणो न हि सज्जते. . .अभयं वै जनक प्राप्तोसि' (४।२।४) आया है। प्रस्तुत लेखक को ऐसा लगता है कि किसी व्यक्ति ने सांख्य सिद्धान्तों के प्रचार के लिए शान्तिपर्व में उन सांख्य-सम्बन्धी वचनों का समावेश कर दिया जिनमें जनक के गुरु के रूप में याज्ञवल्क्य के स्थान पर पञ्चशिख को रख दिया गया है। उपर्यक्त विवेचनों से यह प्रकट हो जाता है कि शान्तिपर्व के अध्यायों में जो सांस्य सम्बन्धी मत प्रकाशित हैं. वे सांख्य के मल से मेल नहीं खाते, इतना ही नहीं, पञ्चशिख के मत जो अध्याय २११-२१२ शित हैं वे ३०८वें अध्याय के मतों से भिन्न हैं । अध्याय ३०८ में ज्ञान-कर्मसमुच्चय ही पर्चा के रूप में प्रकाशित है, जब कि हम जानते हैं कि सांख्य मुक्ति के लिए केवल ज्ञान को प्रधानता देता है। यह द्रष्टव्य है कि इन अध्यायों में पञ्चशिख के किसी ग्रन्थ की ओर संकेत नहीं है, वे केवल घूमने वाले संन्यासी के रूप में वर्णित हैं जिनके अपने कुछ विशिष्ट मत हैं। प्रस्तुत लेखक को प्रतीत होता है कि शान्तिपर्व के लेखक महोदय के समक्ष कोई ग्रन्थ नहीं था, प्रत्युत उन्होंने परम्परा से आयी हुई यह बात सुन रखी थी कि पञ्चशिख एक बड़े सांख्य प्रचारक थे। प्रो० कीथ का मत है कि शान्तिपर्व का पञ्चशिख वह पञ्चशिख नहीं है जो षष्टितन्त्र का लेखक है (सांख्य सिस्टेम, पृष्ट ४८)। राजभिः॥ ३०८। १२६-२७, १४७ । ननु नाम त्वया मोक्षः कृत्स्नः पञ्चशिखाच्छ तः। सोपायः सोपनिषदः जोपासङगः सनिश्चयः ॥ ३०८। १६३ । टीकाकार नीलकण्ठ ने व्याख्या की है-उपासङगो ध्यानाड़ागानि पमादीनि। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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