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________________ धर्मशास्त्र एवं सांस्य २३७ ने जनक एवं भिक्षु पञ्चशिख के संवाद का उदाहरण दिया है। पञ्चशिख का उत्तर है कि इन दोनों से छुटकारा कोई नहीं पा सकता; यह मार्ग में लोगों के मिलन सा है (अर्थात् क्षणिक है)। किसी ने स्वर्ग या नरक नहीं देखा है, अपना कर्तव्य है वेदों के आदेशों का उल्लंघन न करना, दान एवं यज्ञ करना। इस अध्याय में सांख्य सिद्धान्त की ओर कोई विशिष्ट संकेत नहीं है, यद्यपि पञ्चशिख के मत दिये गये हैं। अध्याय ३०८ (कुल १६१ श्लोक हैं, किन्तु केवल ३० श्लोकों में पञ्चशिख के सिद्धान्त का उल्लेख है) में यधिष्ठिर ने प्रश्न किया है'किस व्यक्ति ने बिना गृहस्थाश्रम छोड़े मोक्ष प्राप्त किया है ?' इस पर भीष्म ने उत्तर दिया है जो जनक (धर्मध्वज) एवं भिक्षुकी सुलभा के संवाद के रूप में है । जनक वेदज्ञ थे, मोक्षशास्त्र एवं राजधर्म में पारंगत थे, उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर संयम रखा था और वे पृथिवी के शासक थे । सुलभा ने संन्यासियों से राजा जनक के सदाचार की बातें सुन रखी थीं, अत: उसमें सत्य की जानकारी की प्यास थी। उसने योगबल से अपना भिक्षुकी रूप छोड़ दिया और एक अत्यन्त सुन्दर नारी का रूप धारण कर जनक से मिली । जनक ने उसे बताया कि वे पाराशर्य गोत्र के वृद्ध भिक्षु पञ्चशिख के शिष्य हैं, जो वर्षाऋतु में उनके साथ चार मास रहे और उन्हें (जनक को) सांख्य, योग एवं नीति-शास्त्र इन मोक्ष के तीन स्वरूपों के बारे में बताया, किन्तु शासक-पद छोड़ने के लिए कोई बात नहीं कही। जनक ने कहा--'सभी प्रकार की विषयासक्ति को त्याग कर तथा परमोत्तम पद पर स्थित ( शासक ) रहकर मैं मोक्ष के तीन मार्गों का अनुसरण करता हूँ, इस मोक्ष का सर्वोच्च नियम है 'विषयासक्ति से मुक्ति, विषयासक्ति का अभाव सम्यक् ज्ञान से होता है, जिसके द्वारा व्यक्ति (संसार के) बन्धन से छटकारा पाता है।' जनक ने आगे प्रकट किया है कि उस भिक्ष द्वारा, जो अपनी शिखा के कारण पञ्चशिख कहे जाते हैं, ज्ञान प्राप्त करने के कारण वे सभी विषयों से मक्त हैं, यद्यपि वे अपने राज्य का शासन करते जा रहे हैं, वे इस प्रकार अन्य संन्यासियों से पृथक् हैं। इसके उपरान्त जनक ने (३०८।३८-४१) मोक्ष के तीन प्रकारों का एक अन्य अर्थ किया है जो पञ्चशिख द्वारा उन्हें प्राप्त हुआ था, यथा--(१) लोकोत्तर ज्ञान एवं सर्वत्याग, (२) कर्मों के प्रति ज्ञाननिष्ठा एवं (३) ज्ञान तथा कर्म का समुच्चय, और ऐसा कहा गया है कि जो इस तीसरे मार्ग का अनुसरण करते हैं वे गृहस्थों से कई रूपों में मिलते-जलते हैं। जनक ने अपना दष्टिकोण यों उपस्थित किया है--काषायधारण, सिर-मण्डन, कमण्डल का प्रयोग केवल बाहरी चिह्न हैं, ये मोक्ष की ओर नहीं ले जाते, मोक्ष केवल अकिञ्चनता से नहीं प्राप्त होता, धन-प्राप्ति से ही बन्धन नहीं होता, यह ज्ञान ही है जिसके द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है, चाहे पास में धन रहे या न रहे ।२४ श्लोक ४० से प्रकट होता है कि पञ्चशिख ने मोक्षनिष्ठा के तीसरे प्रकार (ज्ञान-कर्म-समुच्चय) पर बल दिया है और जनक ने इसे ही स्वीकार किया है। ३०८ वें अध्याय का शेषांश जनक द्वारा सुलभा पर लगाये गये अभियोग तथा जनक के विरोध में दिये गये सुलभा के मर्मघाती वाक्य-बाणों से सम्बन्धित है ।२५ अन्त में वह २४. काषायधारणं मौण्डयं त्रिविष्टब्धः कमण्डलुः । लिङगान्यत्यर्थमेतानि न मोक्षायेति मे मतिः॥... आकिञ्चन्ये न मोक्षोऽस्ति कैञ्चन्ये नास्ति बन्धनम् । कञ्चन्ये चेतरे चैव जन्तुनिन मुच्यते ॥ शान्ति० (३०८। ४७ एवं ५०) । 'अकिञ्चन' का अर्थ होता है वह जिसके पास कुछ भी न हो एवं आकैञ्चन्य का अर्थ है 'अकिञ्चन होने की स्थिति।' २५. कुछ प्रत्युत्तर नीचे दिये जाते हैं--'यद्यात्मनि परस्मिश्च समतामध्यवस्यसि । अथ मां कासि कस्यति किमर्थमनुपृच्छसि। ... सर्वः स्वे स्वे गृहे राजा सर्वः स्वे स्वे गृहे गृही । निग्रहानुग्रहौ कुर्वस्तुल्यो जनक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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