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पर्मशास्त्र एवं सांस्य
२१ उल्लेख किया है, जो क्रमशः उच्च कोटि की ओर बढ़ते जाते हैं । यह सांख्य के समान ही है, किन्तु एक अपवाद है-यथा उपनिषद् ने अहंकार का उल्लेख नहीं किया है और बुद्धि एवं महान् को भिन्न माना है, किन्तु सांख्य ने उन्हें अभिन्न रखा है । अतः स्पष्ट है कि इन दोनों उपनिषदों में विकास का वही सिद्धान्त है जो सांख्य द्वारा भी प्रतिपादित है, अन्तर केवल यह है कि उपनिषदों ने एक परम स्रष्टा (जो अखिल ब्रह्माण्ड का विधाता है) की कल्पना की है, जिसे सांख्य ने छोड़ दिया है और केवल विकासशील कोटि की ओर ही संकेत कर मौन धारण कर लिया है । शंकराचार्य ने वे० सू० (१।२।१२) में 'द्वा सुपर्णा सयुजा' (जो मुण्डकोपनिषद् ३।१११ एवं श्वेताश्वतरोपनिषद् ३।१ एवं ऋ० १११६४।२० में पाया जाता है) का उद्धरण दिया है और इसकी व्याख्या इसे 'जीव' एवं 'परमात्मा' कहकर की है । आचार्य ने इसके उपरान्त अपने किसी पूर्ववर्ती के तर्क का उल्लेख किया है, जो पनीरहस्य-ब्राह्मण पर निर्भर रहते हैं, जहाँ मन्त्र के उत्तरार्ध की व्याख्या इस प्रकार की गयी है मानो उसमें सत्त्व (बुद्धि) एवं क्षेत्रज्ञ (आत्मा) की ओर संकेत हो। इससे कुछ लोग इस मन्त्र में सांख्य विचारों को पढ़ते हैं । कठोपनिषद् (३।४) में आया है कि आत्मा का भोक्ता के रूप में वर्णन आत्मा के उस संयोग (सम्मिलन) का फल है जो इन्द्रियों एवं मन के साथ होता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् (६।१३) में स्पष्ट रूप से सांख्य एवं योग की ओर संकेत आया है और उसका कथन है कि 'उस कारण के परिज्ञान पर जो सांख्य एवं योग के अध्ययन द्वारा प्राप्त किया जाता है, वह (व्यक्ति) सभी बन्धनों से छुटकारा पा लेता है ।१२ यह उपनिषद् उन शब्दों से भरी पड़ी है जो बहुधा सांख्य सिद्धान्त द्वारा प्रयुक्त हुए हैं, यथा--'अव्यक्त' (११८); 'गुण' (५१७ ‘स विश्वरूपस्त्रिगुणः, एवं ६।२, ४ एवं १६); 'ज्ञ' (५।२, ६।१७); 'प्रकृति' (मायां तु प्रकृति विद्यात् ४।१०); 'पुरुष' (१।२, ३।१२, १३, ४७); 'प्रधान' (१।१०, ६।१० एवं १६); "लिंग' (१।१३, ६।६) । श्वेताश्व० (६।११) ने एक ईश्वर को इस प्रकार कहा है-'साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च ।' सांख्य ने ईश्वर को स्वीकार नहीं किया है और उसकी उपाधियाँ 'पुरुष' के लिए रख दी हैं । 'पुरुष' तो सांख्य के अनुसार केवल निष्क्रिय साक्षी है, शुद्ध बुद्ध है और वह गुणों से अप्रभावित है। प्रश्नोपनिषद् (४१८) ने पाँच तत्त्वों एवं उनकी मात्राओं (पृथिवी च पृथिवीमात्रा च. . . ), दस इन्द्रियों एवं उनके पदार्थों, मन, बुद्धि, अहंकार आदि का उल्लेख किया है । प्रकृति एवं तीन गुणों के संबंध में अपने सिद्धांत के लिए सांख्य लोग 'अजामेकाम्' (श्वेताश्व० ४।५) १३
१२. नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनानामेको बहूनां यो विदधाति कामान् । तत्कारणं सांख्ययोगाधिगम्यं ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ श्वेताश्व० (४।१३) । इसका प्रथम अर्धांश कठो० (१३०) में आया है। शंकराचार्य (वे० सू० २॥१॥३) ने टिप्पणी की है-'यत्तु दर्शनमुक्तं तत्कारणं सांख्ययोगाभिपन्नम् इति, वैदिकमेव तत्त्वज्ञानं ध्यानं च सांख्ययोगशब्दाभ्यामभिलप्यते प्रत्यासत्तेरित्यवगन्तव्यम् ।' मिलाइए गीता (१३।१६ एवं २१) प्रकृतिं पुरुषं चैव ... जहां पुरुष , प्रकृति एवं गुण के सम्बन्ध का उल्लेख है । 'साक्षी' शब्द की व्याख्या पाणिनि द्वारा इस प्रकार की गयी है--'साक्षाद्ष्टरि संज्ञायाम्' (५।२।२६)। 'कैवल्य' शब्द, जो सांख्य का परमार्थ है, 'केवल' (जो श्वेताश्वतरोपनिषद् ११११ एवं ६।११ में आया है ) से निष्पन्न हुआ है और उसका अर्थ है 'केवलस्य भावः'।
१३. अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजोयको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ श्वेताश्व० उप० (४५)। यह मन्त्र आलंकारिक ढंग से प्रकृति, पुरुष एवं गुणों
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