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________________ २३० धर्मशास्त्र का इतिहास अपरिवर्तनशील हैं । यह अन्तिम मत सांख्य एवं अद्वैत वेदान्त के विशिष्ट अन्तरों में एक है । हम यहाँ पर इन सब बातों के विशद विवेचन में नहीं पड़ेंगे। सांख्य का एक अन्य सिद्धान्त है सत्कार्यवाद, अर्थात् कार्य पहले से ही कारण में विद्यमान रहता है, यह अभाव से नहीं उत्पन्न होता (सां० का०६)। मिलाइए छान्दोग्योपनिषद् (६।२।२ कथमसत: सज्जायेत) एवं गीता (२।१६, नासतो विद्यते भावः) । सांख्यकारिका की तिथि निश्चित करना एक कठिन समस्या है। परमार्थ ने कारिका एवं उसकी टीका को चीनी भाषा में लगभग ५४६ ई० में अनूदित किया था, अत: कारिका को हम २५०-३०० ई० के पश्चात् नहीं रख सकते । यह इससे कई शतियों पूर्व की हो सकती है । कुमारिल के श्लोकवात्तिक की टीका में उम्बेक ने माधव नामक लेखक का उल्लेख 'सांख्यनायक' के रूप में किया है तथा युवां च्वाँग ने भी माधव नामक एक सांख्य-आचार्य का उल्लेख किया है । डा० राघवन ने अपनी 'सरूप भारती' (पृ० १६२-१६४) में दर्शाया है कि माधव सांख्य का एक विध्वंसक आलोचक था, वास्तव में शुद्ध पाठ है--'सांख्यनाशक-माधव' न कि 'सांख्यनायक-माधव' तथा वे सम्भवतः दिङनाग एवं धर्मकीति के पूर्व हुए थे (अर्थात् ५०० ई० के पूर्व)। शंकराचार्य (देखिए इस अध्याय की पाद-टिप्पणी १) का कथन है कि कुछ उपनिषद्-वचनों से ऐसा प्रकट होता है कि मानो वे सांख्य सिद्धान्त को स्पष्ट रूप से मानते हैं । हम यहाँ कुछ ऐसे उपनिषद्-वचनों को, जो या तो सांख्य सिद्धान्तों को ढंक लेते हैं या सांख्य सिद्धान्त के अनुसार पारिभाषिक अर्थ वाले हैं, उद्धत करते हैं।'' अथर्ववेद (१०।८।४३) का एक वचन अवलोकनीय है-'ब्रह्मविद् उस यक्ष को जानते हैं, जो आत्मा-युक्त है, जो नव द्वार वाले कमल (शरीर) में तीन गुणों से ढंका हुआ निवास करता है।' इसे श्वेताश्वतरोपनिषद् (३।१८) एवं गीता (५।१३ नवद्वारे पुरे देही) से मिलाया जा सकता है। मुण्डकोपनिषद् (२।१।३) ने कहा है-'उससे प्राण, मन, सभी इन्द्रियों, पञ्च तत्त्वों एवं आकाश, वायु, ज्योति (तेज), जल एवं पृथिवी का जन्म हुआ है।' कठोपनिषद् ने इन्द्रियों के पदार्थों, मन, बुद्धि, महान्, अव्यक्त, पुरुष का ११. पुण्डरीकं नवद्वारं त्रिभिर्गुणेभिरावृतम् । तस्मिन्यद्यक्षमात्मन्यत् तद्वै ब्रह्मविदो विदुः॥ अथर्ववेद (१०। ८।४३)। यहाँ 'यक्ष' का क्या अर्थ है, कहना कठिन है। यह शब्द ऋग्वेद (१३॥१३, ५॥१०॥४, १६११५) में भी आया है, जहाँ सायण ने विभिन्न अर्थ किये हैं। एतस्माज्जायते प्राणो मनः सर्वन्द्रियाणि च । खं वायुज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥ मुण्डकोपनिषद्, (२।११३); इन्द्रियेभ्यः परा ह्या अर्थेभ्यश्च परं मनः। मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धरात्मा महान्परः॥ महतः परमव्यक्तमव्यक्तात्पुरुषः परः। पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा गतिः॥ कठोपनिषद् (३३१०-११) । कुछ हलके अन्तरों के साथ ये बातें बृहद्योगियाज्ञवल्क्यस्मति ( १८४-१८६) में भी पायी जाती हैं। वे० सू० (१।४।१) में सांख्य विरोधी इस कठ-वचन पर निर्भर रहता है, क्योंकि इससे यह प्रकट होता है कि सांख्य सिद्धान्त वेद पर आधत हैं। मिलाइए भगवद्गीता (३।४२-४३)। शांकरभाष्य (वे. सू०, १२।१२) ने उल्लेख किया है--'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरेकः पिप्पलं स्वादत्यनश्नन्नन्योऽभिचाकशीति ॥ मुण्डक० (३।१।१)' श्वेताश्वतरोप० (४।६) एवं ऋ० (१३१६४।२०), फिर कहा है-'अपर आह । वा सुपर्णा-इति । नेयमृगस्याधिकरणस्य सिद्धान्तं भजते पंडगिरहस्यब्राह्मणेनान्यथा व्याख्यातत्वात् । तयोरेकः पिप्पलं स्वादत्तीति सत्त्वम्, अनश्नन्नन्यो...अभिपश्यति जस्तावेतो सत्त्वक्षेत्रज्ञौ।' यह 'ढा सुपर्णा नामक मन्त्र बे० सू० (३३३३३४) का विषय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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