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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
२१६ प्रधानमल्लनिबर्हणन्याय-'प्रधान मल्ल को हरा देना', भावना यह है कि यदि प्रधान मल्ल हरा दिया गया तो उससे कम शक्ति वाले प्रतियोगी हारे हुए समझे जाने चाहिए । शांकरभाष्य (वे० सू० १।४।२८ एवं २।१।१२)।
प्रधानस्य चोद्दिश्यमानस्य विशेषणमविवक्षितम्-देखिए टुपुटीका (जै० ७।१।२, पृ० १५२६) । प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोपि प्रवर्तते-देखिए श्लोकवा० (सम्बन्धाक्षेप०, श्लोक ५५, पृ० ६५३) ।
प्रस्तरप्रहरणन्याय-जै० (३।२।११-१५), दर्शपूर्णमास में निर्देश करते हुए 'सूक्तवाकेन प्रस्तरं प्रहरति', अर्थात् पुरोहित सूक्तवाक मन्त्र के साथ, जो इस प्रकार एक अंग हो जाता है, प्रस्तर (कुशों का एक गुच्छा) को अग्नि में डालता है।
प्रासाददीपन्याय-'देहलीदीपन्याय' के समान । शबर (जै० १२।१।१ एवं ३) ।
प्रयंगवन्याय-देखिए तन्त्रवा० (जै० २।१।१२, पृ० ४१५) । यह शबर (जै० ११३८) के 'तत्र केचिद् दीर्घशूकेषु यव-शब्द प्रयुञ्जते केचित्प्रियङगुषु' की ओर संकेत करता है।
__फलवत्संनिधावफलं तदंगम्-० (४।४।३४, जो एक लम्बा सूत्र है) में हमें ये शब्द मिलते हैं-'तत्पुनर्मुख्यलक्षणं यत्फलवत्त्वं तत्संनिधावसंयुक्तं तदंगं स्यात् ।' देखिए शबर (जै० ४।४।१६); कुल्लूक (मनु २।१०११०२) ने इसका प्रयोग किया है; शांकरभाष्य (वे० सू० २।१।१४) ।
बहिाय-जै० (३।२।१) । शबर ने 'बहिर्देवसदनं दामि' (मैं देवता के निवास के लिए बहि काटता हूँ) का उद्धरण दिया है और कहा है कि मुख्य भाव लेना चाहिए न कि गौण (समानता के आधार पर अन्य अर्थ)।
ब्राह्मणकौण्डिन्यन्याय-देखिए 'तऋकौण्डिन्यन्याय' । मिता० (याज्ञ० ३।२५७) ।
ब्राह्मणपरिवाजकन्याय-शबर (जै० २.११४३) ने लिखा है-'इतो ब्राह्मणा भोज्यन्तामित: परिव्राजका इति।' भामती (वे० सू० ३।१।११) का कथन है कि यह न्याय 'गोबलीवर्दन्याय' सा ही है। शांकरभाष्य (वे. सू० १।४।१६, २।३।१५ एवं ३।११११)। सुबोधिनी (याज्ञ० २६६) ।
ब्राह्मणवसिष्ठन्याय-मेधा० (मनु ७।३५) । 'वसिष्ठ' का अर्थ ब्राह्मण भी है, किन्तु उनका वर्णन पृथक से हो सकता है, क्योंकि वे तप करने वालों में विशिष्ट थे, अर्थात् उनके तप महान् थे।
भावार्थाधिकरण-० (२।१।१), मी० न्या० प्र० (पृ० १२८)।
भूतभव्यसमुच्चारणन्याय या भूतभव्यसमुच्चारणे भूतं भव्यायोपदिश्यते-शबर ने इसका बहुधा प्रयोग किया है, यथा जै० (२।१।४, ३४१४०, ४।१।१८, ६।१।१, ६१६ । टुप्टीका (जै० ४।१।१८) ने व्याख्या की है'भूतं द्रव्यं भव्यां क्रियां निवर्तयतीति क्रियातोऽदृष्टम् ।' व्य० म० (पृ० १११) ।
भूयसान्याय या भूयसां स्यात्सधर्मत्वम्-० (१२।२।२२) के 'विप्रतिषिद्धधर्माणां समवाये भूयसां स्यात् सधर्मत्वम्' पर आधृत है। जब कई कृत्यों का मिला-जुला (मिश्रित) यज्ञ होता है और उसके कई विस्तारों में विरोध उपस्थित हो जाता है तो वैसी स्थिति में जो विधि अपनायी जाती है वह ऐसी होती है कि विस्तार अधिक-सेअधिक संख्या में सभी में पाये जायें। देखिए स्मृतिच० (श्राद्ध, पृ० ४६८), व्य० नि० (पृ २०२)।
माषमुद्गन्याय-० (६।३।२०) । नियम ऐसा है कि जब किसी यज्ञ के लिए व्यवस्थित पदार्थ न प्राप्त हो सके तो कोई अन्य समान पदार्थ काम में लाया जा सकता है (सोम के लिए पूतीका, शबर, जै० ६।३।१४); किन्तु जो पदार्थ स्पष्ट रूप से निषिद्ध रहता है, उसको प्रतिनिधि के रूप में नहीं ग्रहण किया जा सकता, भले ही वह व्यवस्थित पदार्थ के अनुरूप ही क्यों न हो। यदि मुद्ग न प्राप्त हो सके तो माष का प्रयोग नहीं हो सकता,
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