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पर्मशास्त्र का इतिहास न्यायसाम्य-नि० सि० (पृ० ६७) का कथन है कि सूर्यग्रहण पर श्राद्ध करने के नियम चन्द्रग्रहण पाले श्राद्ध के लिए प्रयुक्त होते हैं।
पंकप्रक्षालनन्याय-यह निम्नलिखित श्लोकाधं से व्यक्त है-'प्रक्षालनाद्धि पद्धकस्य दूरादस्पर्शनं वरम्' जो विश्वरूप (याज्ञ० ११२१०) द्वारा 'तथा च लौकिकाः' नामक शब्दों द्वारा प्रस्तावित किया गया है। यह श्लोकार्ध वनपर्व (१।४६) का है, जिसमें श्रेयो न स्पर्शन् नृणाम्' ऐसा पाटान्तर है और दूसरा अर्ध भाग यह है--'धर्मार्थ यस्य वित्तेहा वरं तस्य निरीहता।' शांकरभाष्य ने इसे उद्धृत किया है (वे० सू० ३।२।२२) ।
पदार्थप्राबल्याधिकरण-जै० (१।३।५-७) एवं शबर (जै० ११३७) । पदार्थानसमय-जै० (५।२।१-२) एवं 'काण्डानसमय' (देखिए ऊपर)।
परमतमप्रतिषिद्धमनुमतं भवति-'मौन से स्वीकृति प्रकट होती है के समान यह है। देखिए दत्त० मी० (पृ० ८२) एवं शांकरभाष्य (वे० स० २।४।१२)।
पर्णमयोन्याय-जै० (३।६।१-८); 'यस्य पर्णमयी जहभवति न स पापं श्लोकं शृणोति' ऐसे वचन ते० सं० (३।५।७।२) में आये हैं, किन्तु किसी विषय की ओर कोई संकेत नहीं है। उनका प्रयोग केवल विकृतियों के लिए हुआ है। देखिए मी० न्या० प्र० (पृ० ११७) एवं भामती (वे० सू०, ११११४, पृ० १२३-१२४) ।
पशन्याय-ज० (४।१।११) एवं ट्पटीका (पृ० १२०३-५, वैदिक वचन--'यो दीक्षितो यदग्नीषोमीयं पशुमालमते) । एकत्व एवं पुंस्त्व दोनों पर बल देना चाहिए, ऐसा बलपूर्वक कहा गया है।
पशपरोडाशन्याय-० (१२।१।१-६); देखिए प्रायश्चित्तप्रकरण (भवदेवकृत, पृ० २०); प्राय० वि० (पृ० ८५) एवं गोविन्दानन्द की तत्त्वार्थकौमुदी।
पिष्टपेषणन्याय-शबर (ज०६।२।३, १२।२।१६); तन्त्रवा० (१।२।३१, पृ० १४७) । पिष्टपेषण का अर्थ है उसे पीसना जो पहले से ही पीसा जा चुका है, अत: अनावश्यक रूप से तर्कों को दुहराना।
पष्ठाकोटन्याय--'पीठ को घुमाकर बार-बार पृथिवी पर पड़े पदार्थों में प्रत्येक को देखना ।' देखिए शबर (जै० २।१।३२) एवं तन्त्रवा० (पृ० ४३४); मिता० (याज्ञ० ३।२१६) ।
प्रकृतिप्रत्ययौ प्रत्ययार्थ सह ब्रूत-देखिए शबर (ज० ३।४।१२, पृ० ६२२ एवं ११११।२२, पृ० २०१३); तन्त्रवा० (जै० २।१।१, पृ० ३८०, ३।१।१२, पृ० ६७४, ३।४।१२, पृ०६०२, ३।७।१०, पृ० १०८०) । महाभाष्य (वार्तिक २, पा० ३।११६७)।
प्रतिनिधिन्याय-जै० (६।३।१३-१७), स्मृतिघ० (श्राद्ध, पृ० ४६०) । इसका अर्थ है 'श्रुतद्रव्यापचारे द्रव्यान्तरं प्रतिनिधाय प्रयोग: कर्तव्यः।'
प्रतिनिमित्तं नैमित्तिकशास्त्रमावर्तते-देखिए न्याय 'निमित्तावृत्तौ' आदि ऊपर; मिता० (याज्ञ० ३।२६३२६४ एवं २८८।
प्रतिपदाधिकरण-मी० न्या० प्र० (पृ० ४७)। जै० (२।११) के प्रथम भाग को शबर ऐसा कहते हैं और दूसरा भाग 'भावार्थाधिकरण' कहा जाता है।
प्रतिप्रधानं गुणावृत्तिः-शबर (जै० ३।३।१४, पृ० ८४४); परा० मा० (११, पृ० ३६१)।
प्रथमातिकमे कारणाभावात्-जै० (१०।५।१ एवं ६), जिस पर शबर का कथन है-'ये क्रमवन्त आरग्ध'ध्यास्ते प्रथमानुपक्रमितथ्याः') तन्त्रमा० (3० ३।२।२०, पृ०७७२ एवं ३।४।५१, पृ०६८८), ध्य० म० (पृ०१३)।
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