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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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म तो पशो करोति न सोमे - जै० ( १०१८ ५ एवं १२।११७) । यहाँ 'तो' 'आज्यभागों' की ओर संकेत करता है; देखिए व्यवहारसार ( पृ० २३१, नृसिंहप्रसाद का अंश ) ; द० मी० ( पृ० १८२ ) ।
न विधौ परः शब्दार्थ : - इसका अर्थ यह है कि ऐसा मानने की अनुमति नहीं है कि किसी विधिवाक्य में प्रयुक्त कोई शब्द अपने सीधे अर्थ से कोई अन्य भिन्न अर्थ रखता । मामती ( वे० सू० १।१।१, पृ० १० ) की व्याख्या में कल्पतरु ने व्याख्या की है- 'विधायके शब्दे परो लक्ष्यः शब्दार्थो न भवति ; देखिए शबर ( जै० ४|४|१६, जहाँ ऐसा आया है - 'अनुवादे च लक्षणा न्याय्या न विधौ ) और देखिए शबर (जै० ४।१।१८, जहाँ १० यज्ञायुधों (पात्रों) को, जो तै० सं० १/६/८/२ - ३ में उल्लिखित हैं, अनुवाद कहा गया है विधि नहीं । देखिए परा० मा० ( १२, पृ० २६८ ) एवं मद० पा० ( पृ० ३७२) एवं दत्त० मी० ( पृ० १८० ) ।
नष्टाश्वदग्धरथन्याय - देखिए शबर ( जं० २1१1१, पृ० ३७६ ) ; तन्त्रवा० ( जै० ११२१७, ३।३।११, पृ० ८१८) । यह प्राचीन न्याय है । वार्तिक ( १६, पाणिनि १|१|५० ) यह है - 'संप्रयोगो वा नष्टाश्वदग्ध रथवत् ।' महाभाष्य ने व्याख्या की है- 'तवाश्वो नष्टो ममापि रथो दग्धः, उभौ संप्रयुज्यावहै इति ।' मेघ तिथि ( मनु ५। ५१ ) एवं मामती ( १|१|४, पृ० १०८ ) ने इसका उल्लेख किया है । इसमें 'इतरेतरोपकारकत्व' की भावना पायी जाती है ।
न हि निन्दा निन्द्यं निन्दितुं प्रयुज्यते, अपि तु विधेयं स्तोतुम् - देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड २, पृ० ५८१ एवं खण्ड ५, पृ०६६ जहाँ शबर एवं तन्त्रवा० के वचन उद्धृत हैं। मिता० (याज्ञ० ३।२२१) ।
न ह्येकस्य शब्दस्यानेकार्थता सत्यां गतौ न्याय्या-- देखिए शबर (जै० ८ ३ २२ एवं ६ । ४ । १८ ) एवं ऊपर वर्णित 'अन्यायश्चाने कार्यत्वम्' नामक न्याय ।
नागृहीतविशेषणान्याय— इसे बहुधा 'नागृहीतविशेषणा विशेष्ये बुद्धिमत्पद्यते' (शबर, जै० ७।२।२३ में ) के रूप में या 'न ह्यप्रतीते विशेषणे विशिष्टं केचन प्रत्येतुमर्हन्ति' (शबर, जै० १1३1३३) के रूप में व्यक्त किया गया है । देखिए तन्त्रवा० ( पृ० ३०४, ३२६, ६१६), एका० तत्त्व ( पृ० १५ ); शुद्धितत्त्व ( पृ० ३१३ ), व्य० म० ( पृ० ८६ ) ।
नास्ति वचनस्यातिभारः - शबर एवं धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में यह न्याय विभिन्न रूपों में वर्णित है, किन्तु सभी स्थलों पर अर्थ एक ही है, यथा- 'पवित्र वचन के लिए कुछ भी अति भारी (बोझ, अर्थात् व्यवस्था देने में असम्भव ) नहीं है ।' देखिए शबर (जै० २।२१२७ किमिव हि वचनं न कुर्यान्नास्ति... भार) या जै० (३१२/३, १०।५।११ ) या जै० (६।१।४४, जहाँ ऐसा आया है-'न हि वचनस्य किंचिदलभ्यं नाम'); शंकराचार्य ( वे० सू० ३ | ३ | ४१ एवं ३।४।३२) | विश्वरूप ( याज्ञ० ११५८ ) ; मिता० ( याज्ञ० ३।२६८ ) ; परा० मा० (२११, पृ० २०२ एवं २२, पु० ६४) ।
निमित्तगतं विशेषणमविवक्षितम् - यह 'आर्त्यधिकरणन्याय के समान ही है। देखिए विश्वरूप ( याज्ञ०
३।२१२) ।
निमित्तावृत्तौ नैमित्तिकावृत्तिः -- जै० (६ २०२७ २८ एवं २६ ) | ( भिन्ने जुहोति स्कन्ने जुहोति' ऐसे वचन वास्तव में ऐसी व्यवस्था देते हैं कि जब कभी 'टूट जाना' ऐसा निमित्त आ उपस्थित होता है तो वैसी स्थिति में नया होम किया जाता है। देखिए मेघा ० ( मनु ६ । २२०, एतद्रुद्रास्तथा... ) एवं मिता ० . ( याज्ञ० १।८१ )
निषादस्थपतिन्याय - जै० (६।१।५१-५२ ) । परा० मा० ( १११, पृ० ४६ ) ; प्राय० वि० ( पृ० १३२ ) ; व्य० म० ( पृ० ११२ ) ।
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