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________________ २२० धर्मशास्त्र को इतिहास क्योंकि तै० सं० (५१।८।१) द्वारा माष-अन्न यज्ञ के लिए निषिद्ध ठहराया गया है। देखिए मिता. (याज्ञ० २११२६); दायभाग (१३।१६); प्रायः तत्त्व (पृ० ४८२), व्यव० प्र० (पृ० ५५५) । मिथः-सम्बन्धन्याय-यह 'वात्रघ्नीन्याय' के समान है (जै० ३।१।२३)। मियो-सम्बन्धन्याय-जै० (३।१।२२) एवं शबर (उसी पर); मदनपारिजात (पृ० ८६)। एक गुणवाक्य किसी अन्य गुणवाक्य का सहायक नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों प्रधान उद्देश्य के सहायक होते हैं और दोनों बराबर स्थिति के होते हैं। दो कृत्य हैं-अग्न्याधेय एवं पवमान आहुतियाँ और ऐसा कहा गया है कि इनमें से एक दूसरे के अधीन है। दोनों एक ही उद्देश्य की पूर्ति करते हैं, अर्थात् दोनों दर्शपूर्णमास एवं अन्य यज्ञों में प्रयुक्त होते हैं। ऐसा वैदिक वचन है कि वरण एवं वैकंकत लकड़ी के पात्र यज्ञों के योग्य होते हैं, किन्तु वरण का पात्र होम में प्रयुक्त नहीं होता, किन्तु वैकंकत का पात्र प्रयुक्त होता है । दोनों प्रकार के पात्र यज्ञों के लिए सहायक होते हैं, किन्तु वैदिक वचन में वरण का होम में निषेध एक सामान्य बात है । अत: दोनों में एक, दूसरे के अधीन नहीं है। इसी से वैकंकत के पात्र उन यज्ञों में प्रयुक्त होते हैं जिनमें होम आवश्यक है, किन्तु इन यज्ञों में वरेण के पात्र प्रयुक्त नहीं होते। मुख्यगौणयोश्च मुख्य संप्रत्ययः-शबर (जै० ३।२।१)। देखिए ऊपर 'गोणमुख्ययोश्च... । मुख्यापचारे (या मुरयालाभे) प्रतिनिधिः शास्त्रार्थ:-जै० (६।३।१३-१७), तिथितत्त्व (पृ० १३), दत्त० मी० (पृ० २०६) यथाशक्तिन्याय-० (६।३।१-७) । धर्मद्वैतनिर्णय (पृ० १०५); एका० तत्व (पृ० १८, २६) । यववराहाधिकरण-जै० (१।३।६)। यश्चोभयोः पक्षयोर्दोषो न तमेकश्चोद्यो भवति या 'यस्चोभ. . . . नासावेक पक्षं निवर्तयति' या 'यश्चो. . . नासावेकस्य वाच्यः'-देखिए शबर (जै० ८।३।७ एवं १४, १०।३।२५, पृ० १८१६) । यस्य येनार्थसम्बन्ध इति न्यायात्--यह 'यस्य येनाभिसम्बन्धो दूरस्थेनापि तस्य सः । अर्थतो ह्यसमर्थानामानन्तर्यमकारणम् ॥' का एक अंश है। न्यायसुधा (पृ० १०७६) ने इसे तन्त्रवार्तिक (३।१।२७) पर टीका करते हुए वृद्ध-श्लोक कहकर उद्धृत किया है; तन्त्रवा० (पृ० ७४४) में आया है-'यस्य सम्बन्ध... इति न्यायात्' । यह न्याय राजनीति-विषयक ग्रन्थों में भी प्रयुक्त हुआ है । व्यक्तिविवेक-व्याख्या (पृ० ३६) अभिनव-भारती द्वारा नाट्यशास्त्र में उद्धृत ('तथ.पि यस्य येनार्थसम्बन्ध इत्यर्थक्रम आदर्तव्यो न शब्द इति' )। यावद्वचनं वाचनिकम्-देखिए शबर (जै० ५।४।११, याव...कं न तत्र न्यायः क्रमते, एवं ५।३।१२ याव... कं न सदृशमुपसंक्र.म.ति) 1 म.दना यह है-'किसी अधिकारी वचन के विषय में केवल उतना ही स्वीकार करना चाहिए जो प्रयुक्त शब्दों से व्यक्त हो और उसे समानता के आधार पर अन्य विषयों में प्रयुक्त नहीं मानना चाहिए।' देखिए तन्त्रवा० (जै० ३।५।१६); भामती (वे० सू० ४।१।१ एवं ४।३।४); मेधा० (मनु १०।१२७) । युगपत्तिद्वयविरोधन्याय--किसी विधि में एक ही शब्द एक ही काल में मुख्य एवं गौण दोनों अर्थों में प्रयुक्त नहीं हो सकता । देखिए जै० ३।२।१ एवं शबर; व्य० म० (पृ० ६२); दायभाग (३।३०, पृ० ६७) । योगसिद्धयधिकरण-जै० (४।३।२७-२८) । ज्योतिष्टोम सभी फलों को एक-साथ ही नहीं प्रकट करता, प्रत्युत एक-के-पश्चात्-एक प्रकट करता है। यह शब्द सूत्र २८ में आया है और 'योगसिद्धि' शब्द का अर्थ है 'पर्याय', जैसा कि शबर का कथन है। देखिए मेधा० (मनु ११।२२०); शुद्धितत्त्व (पृ० २३६), प्राय० वि० (पृ० ७८) एवं भवदेवकृत प्राय० प्रकरण (पृ०. १८)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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