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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास श्री० सू० में 'फट' का प्रयोग अभिचार (दुष्ट उद्देश्य को लेकर मन्त्रों के प्रयोग) के लिए सोम-डण्ठलों की आहुति के सिलसिले में किया गया है। तन्त्र ग्रन्थों में देवी-पूजा में 'फट्' का बहुधा प्रयोग हुआ है। किन्तु अथर्ववेद से तन्त्रों के मध्य में किसी प्रत्यक्ष साहचर्य को बताना कठिन है । शान्तरक्षित (७०५-७६२ ई०) के तत्त्वसंग्रह ने बुद्ध को भी जादू के प्रयोगों से सम्बन्धित माना है। इसमें आया है-- 'सभी विचक्षण लोगों द्वारा यह घोषित है कि यह धर्म है जिससे लौकिक समृद्धि एवं परमोच्च तत्त्व अर्थात् प्राप्त होती है। प्रत्यक्ष परिणाम, यथा-बुद्धि, स्वास्थ्य, विभुता (ऐश्वर्य) आदि बुद्ध द्वारा उद्घोषित मन्त्रों, योग आदि के पालन से उत्पन्न होते हैं। किन्तु घटना या निर्देशित व्यक्ति के एक सहस्र वर्ष से अधिक काल पूर्व किये गये संदिग्ध कथन पर निर्विवाद विश्वास नहीं किया जा सकता। हाँ, यह बात है कि हम पालि के पवित्र ग्रन्थों में बुद्ध के शिष्यों के बीच जादू की शक्तियों की उत्पत्ति के विषय में कहानियाँ सुनते हैं, यथा-उस भारद्वाज की गाथा जो एक अति सुगन्धित चन्दन के बने पात्र के लिए हवा में उठ गये ।११ महावग्ग (६।३४।१, सै० बु० ई० , जिल्द १७, पृ० १२१) में आया है कि एक उपासक जिसका नाम मेण्डक था, अलौकिक शक्तियाँ रखता था, उसकी पत्नी, पुत्र एवं पतोहू सबमें ऐसी शक्तियाँ थीं। यहाँ पर भी हमें यह स्मरण रखना होगा कि त्रिपिटक या किसी अन्य आरम्भिक बौद्ध लिखित प्रमाण में ऐसा नहीं है जिसके आधार पर हम ऐसा सिद्ध करें कि बुद्ध या उनके प्रथम शिष्यों का सम्बन्ध मुद्राओं, मन्त्रों एवं मण्डलों से था और न युवाँच्वाँग (ह्वेनसाँग) या इत्सिग ने तन्त्रों की कोई चर्चा ही की है, जब कि उन्होंने बौद्ध संस्कृति के रूप में मठों का उल्लेख किया है। (देखिए डा० डे, न्यू इण्डियन ऐण्टीक्वेरी, जिल्द १, पृ० १) । साधनमाला (जिल्द २, ६८) की भूमिका में डा० भट्टाचार्य साधनमाला के पु० ३३४-३३५ पर आये हुए 'सुगतोपदिष्टम्' एवं 'सुगतैः' पर निर्भर रहते हैं और कहते हैं कि स्वयं बुद्ध ने कुछ मन्त्रों को प्रवर्तित अवश्य किया होगा। इस पर दो महत्त्वपूर्ण विरोध उपस्थित किये जा सकते हैं, यथा--प्रथमत:, 'सुगतैः' का अर्थ सदैव बुद्ध नहीं होता, इसका अर्थ 'बुद्ध के अनुयायी गण' भी हो सकता है और द्वितीयतः, जिस प्रकार हिन्दू तन्त्रों में अधिकांश शिव एवं पार्वती के बीच कथनोपकथन हैं, उसी प्रकार १०. यतोऽभ्युदयनिष्पत्तिर्यतो निःश्रेयसस्य च । स धर्म उच्यते तादृक् सर्वेरेव विचक्षणः ॥ तदुक्तमन्त्रयोगादिनियमाद्विधिवत्कृतात् । प्रज्ञारोग्यविभुत्वादि दृष्टधर्मोपि जायते ॥ तत्त्वसंग्रह (पृ० ६०५); कमलशील (शान्तरक्षित के शिष्य) नेटीका को है-'तेन भगवतोक्तश्चासौ मन्त्रयोगाविनियमश्चेति विग्रहः।योगः समाधिः । आदिशब्देन मुद्रामण्डलादिपरिग्रहः।' प्रथम श्लोक वैशेषिक सूत्र (१७६१-२) पर आधृत सा लगता है, जो यों है-'अथातो धर्म व्याख्यास्यामः। यतोऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। अभ्युदय शब्द कणाद के सूत्र के टीकाकारों द्वारा कई प्रकार से व्याख्यायित हुआ है, किन्तु सामान्यतः अभ्युदय का तात्पर्य है 'सांसारिक सुख या समृद्धि', मिलाइए भरत का नाट्यशास्त्र--'विवाहप्रसवावाहप्रमोदाभ्युदयादिषु । विनोदकरणं चैव नृत्तमेतत्प्रकीर्तितम् ॥' अध्याय ४१२६३ (गायकवाड़ ओरिएण्टल सीरीज़)। कुछ लोग इसका अर्थ स्वर्ग लगाते हैं, क्योंकि निःश्रेयस का अर्थ मोक्ष या अमृतत्व होता है। ११. चुल्लवग्ग (सै० बु० ई०, जिल्द २०, पृ० ७८) में पुण्डोल भारद्वाज की गाथा आयी है। बुद्ध के शिष्य भारद्वाज ने हवा में उड़कर, हाथ में पात्र लेकर राजगृह नगर में तीन बार प्रदक्षिणा की। ऐसा आया है कि बुद्ध ने अपने शिष्य को घुड़की दी और पात्र को तोड़कर चूर-चूर कर देने की आज्ञा दी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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