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तान्त्रिक सिद्धान्त एवं धर्मशास्त्र हो; वह व्यक्ति, जिसने मुझे झूठमूठ अभिचार करने वाला कहा हो, अपने दस पुत्रों से रहित हो जाये; जिसने मुझे यातुधान कहा हो उसे इन्द्र भयंकर शस्त्र से मार डाले, यद्यपि मैं वैसा नहीं हूँ और वह, जो स्वयं 'रक्षस्' है, अपने को पवित्र घोषित करता है ; जो अत्यन्त दुष्ट है, वह सभी प्राणियों से निम्न (हीन या नीच) हो जाय (ऋ० ७।१०४।१५-१६); हे मरुतगणो, तुम लोगों के मध्य विभिन्न स्थानों में फैल जाओ और दुष्टों को पकड़ लो और इन राक्षसों को, जो पक्षियों का रूप धारण करके रात्रि में विचरण करते हैं और यज्ञ के समय भयंकर विघ्न उपस्थित करते हैं, चूर्ण-चूर्ण कर दो (वही, मन्त्र १८); हे इन्द्र , उन पुरुषों को-जो जादू-टोना करते हैं, और उन नारियों को (जादूगरनियों को), जो माया से नाश करती हैं , मार डालो; जो मूर्ख देवों के पूजक हैं, वे गर्दन कटा कर मर जायँ, वे सूर्य का उदय न देख सकें (ऋ० ७.१०४/२४); हे अग्नि, यातूधान के चर्म के टुकडे कर दो, तुम्हारा नाशकारी वन उष्णता से उसे मार डाले; हे जातवेदा, उसकी गाँठों को छिन्न-भिन्न कर दो, इस छिन्न-भिन्न (यातुधान) को मांस की इच्छा करने वाले मांसाहारी पशु खा डालें; हे अग्नि, तुम यातुधानों को अपनी उष्णता से तथा रक्षसों को अपनी ज्वाल से चूर-चूर कर दो और मूरदेवों (मूर्ख देवों) के पूजकों का नाश कर दो, और उनकी ओर, जो असुतप (मनुष्य को खाने वाले) हैं, चमकते हुए उन्हें चूर-चूर कर दो' (ऋ० १०१८७१५ एवं १४) ।
आप० गृह्य सूत्र (३।६।५-८) में ऐसा उल्लिखित है कि सौत द्वारा प्रयुक्त पौधा पाठा कहलाता है और पति पर शासन करने एवं सौत को हानि पहुँचाने के लिए ऋ० (१०।१४५) को प्रयुक्त किया जाता है । ऋ० (१११६१) बहुत से विषयों का विरोधी (निवारक) एक मोहनमन्त्र है। अथर्ववेद में बहुत से सूक्त 'शत्रुनाशन' के शीर्षक वाले हैं , यथा-२।१२-२४, ३६, ४।३ एवं ४० ५।८, ६८, ६५-६७ एवं १३४ । अथर्व० (२०११) को 'कत्या-दूषण' (अभिचार के प्रभाव को दूर करने वाला) कहा गया है। यहाँ दिये जा रहे हैं। 'उसके विरोध में, जो हमें घृणा की दृष्टि से देखता है या जिसे हम घृणा की दृष्टि से देखते हैं, जादू करो; जो श्रेष्ठ है उस पर शासन करो और जो समान है उससे श्रेष्ठ हो जाओ'; 'हे सोम, तुम उसे अपने वज्र से मुख में मारो, जो हम लोगों की , जो केवल अच्छा ही बोलते हैं, बुराई करता है, और वह पिट कर भाग जाये।' शुक्रनीतिसार (४।२।३६) में ऐसा आया है कि तन्त्र अथर्ववेद के उपवेद हैं (जी० ऑपर्ट द्वारा सम्पादित , १८८२) । अथर्ववेद (३।२५ एवं ६।१३०) में ऐसे सूक्त हैं जो क्रम से एक पुरुष एवं नारी द्वारा अपनी प्रेमिका एवं प्रेमी को वश में करने के लिए प्रयुक्त होते हैं । अथर्व० (२।३० एवं ३१) में ऐसे मन्त्र हैं जिनके द्वारा रोग उत्पन्न करने वाले कीड़े नष्ट किये जाते हैं तथा ५॥३६ पिशाचों को नष्ट करने के लिए है। ‘फट्' शब्द वाजसनेयी संहिता में पाया जाता है। आप०
८. प्रति तमभि चर योऽस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः । आप्नुहि श्रेयांसमति समं क्रम ॥ अथर्ववेद (२॥११३) यो नः सोम सुशंसिनो दुःशंस आदिदेशति । वजे णास्य मुखे जहि स संपिष्टो अपायति ॥ अथर्व० (६६२); विविधोपास्य मन्त्राणां प्रयोगाः सुविभेदतः। कथिताः सोपसंहारास्तद्धर्मनियमैश्च षट् । अथर्वणां चोपवेदस्तन्त्ररूपः स एव हि ॥ शुक्रतीतिसार (४॥३॥३६)।
६. उपरि प्रता भंगेन हतोऽसौ फट् प्राणाय त्वा व्यानाय त्वा । वाज० सं० (७॥३) जिस पर महीधर को टीका यों है-'उपरि आगतेन भंगेन आमन असाविति देवदत्तादिनामनिर्देशः । असौ द्वषो हतो निहतः सन् फट् विशीर्णो भवतु।... स्वाहाकारस्थाने फडिति अभिचारे प्रयुज्यते।
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