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धर्मशास्त्र का इतिहास
पूर्वमीमांसासूत्र के प्रथम ६ अध्यायों में दर्शपूर्णमास जैसे कृत्यों की विधि का, जिसके विस्तार का स्पष्टीकरण वेद द्वारा हुआ है, विवेचन किया गया है। सातवें अध्याय में इसका विवेचन है कि क्या विकृतियों (वे यज्ञ जो आदर्श यज्ञों के परिष्कृत या सहायक रूप हैं) में प्रकृति या प्रधान यज्ञ जोड़े जायेंगे और यदि ऐसा हो तो कौन-से और कितने जोड़े जायेंगे ।
सातवें अध्याय में ऐन्द्राग्न एवं अन्य यज्ञों में विस्तार और उनके सामान्य स्थानान्तरण ( अर्थात् सामान्य रूप में अतिदेश) का विवेचन पाया जाता है। अतिदेश वह विधि या प्रणाली है जिसके द्वारा किसी कृत्य के सम्बन्ध में व्यवस्थित विस्तारों को उस कृत्य के आगे ले जाया जाता है और दूसरे में लगाया जाता है ( स्थानान्तरण किया जाता है) । शबर ने किसी प्राचीन लेखक का एक श्लोक उद्धृत कर अतिदेश की परिभाषा की है। वह यज्ञ, जिसके विस्तारों को स्थानान्तरित किया जाता है, प्रकृति (आदर्श, नमूना या मूल रूप ) कहलाता है तथा वह यज्ञ जिसमें वैसा स्थानान्तरण किया जाता है, विकृति कहलाता है । अतिदेश की व्यवस्था वचन ( वैदिक वाक्य ) या नाम से की जा सकती है । ( प्रथम के दो प्रकार होते हैं, यथा-- प्रत्यक्ष वक्तव्य द्वारा या अनुमानित विधि से) उदाहरणार्थं, 'इषु' नामक इन्द्रजाल सम्बन्धी यज्ञ के विषय में कुछ विस्तारों का उल्लेख करने के उपरान्त वचन कहता है कि शेषांश वैसा ही है जैसा कि श्येन में है । ४७ अनुमानिक वचन का एक उदाहरण है दर्शपूर्णमास में आग्नेय के विस्तारों का सौयं यज्ञ तक अतिदेश, क्योंकि दोनों एक-दूसरे से भली-भाँति सम्बन्धित हैं और क्योंकि 'सौर्ययाग' (पू० मी० सू० ७।४।१ ) के बारे में वचन द्वारा कोई विस्तार व्यवस्थित नहीं है । नाम के भी दो प्रकार हैं—कृत्य का नाम एवं संस्कार का नाम । कुण्डपायिनामयन में व्यवस्थित मासाग्निहोत्र ( देखिए पू० मी० सू० २।३।२४ ) नित्य अग्निहोत्र से भिन्न है (यथा 'यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहुयात्' में), किन्तु 'अग्निहोत्र' नाम दोनों में पाया जाता है, अतः सामान्य अग्निहोत्र के विस्तार ( यथा - गो दुहना, दही या दूध का अर्पण, खदिरसमिधा आदि) मासाग्निहोत्र ( जै० ७।३।१ - ४ ) में अतिदेशित हो सकते हैं । संस्कार नाम के अतिदेश का उदाहरण जैमिनि (७|३|१२-१५ ) में है । वरुणप्रघास ( जो चातुर्मास्यों में एक है) में अवभृथ ( स्नान) की व्यवस्था है, किन्तु उसमें विस्तार नहीं जोड़े गये हैं अतः आवश्यक विस्तार सोमयाग के अवभृथ के बारे में दिये गये नियमों से ग्रहण किये जा सकते हैं ।
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स्मृतियों एवं निबन्धों ने बहुधा अतिदेश का आश्रय लिया है। उदाहरणार्थं, याज्ञ० ( १।२३६ एवं २४२ ) ने अग्नौकरण एवं पार्वणश्राद्ध में पिण्डदान के विषय में पिण्डपितृयज्ञ की विधि को विस्तृत कर दिया है । पराशरस्मृति ( ७।१८-१६) ने रजस्वला नारी को प्रथम दिन में चाण्डाली, दूसरे दिन में ब्रह्मघातिनो एवं तीसरे दिन में रजकी ( धोबिन ) कहा है। पराशरमाघवीय ने इस पर टिप्पणी की है कि इन नामों से पुकारे जाने का तात्पर्यं यह है कि इन दिनों में उस नारी से संभोग करने पर वही पाप लगता है जो किसी उच्च वर्ण के पुरुष द्वारा चाण्डाली आदि से संभोग करने से लगता है ।
आठवें अध्याय में अतिदेश के विशिष्ट उदाहरण दिये गये हैं । दर्शपूर्णमास सभी इष्टियों४८ की प्रकृति है तथा 'दर्शपूर्ण मास्साभ्यां यजेत' को विध्यादि कहा जाता है और विध्यन्त दर्शपूर्णमास की समस्त पूरी विधि है।
४७. अस्तीषुर्नाम एकाहः । अपरः श्येनः । तौ द्वावप्याभिचारिकौ तत्रेषौ कांश्चिद्धर्मान्विधायाह समानमितरच्छनेनेति । शबर ( ७|१|१३) । 'समा.. नेव' आप० श्रौ० सू० (२२७११८ ) का है।
४८. सुविधा के लिए वैदिक यज्ञों को तीन कोटियों में बहुधा विभाजित किया जाता है, यथा-इष्टि (जिनमें दूध, घृत, चावल, जो तथा अन्य अन्नों की आहुति दी जाती है), पशु एवं सोम । सोम को पुनः एकाह
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