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________________ धर्म शास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम २०३ (केवल दर्शपूर्ण मास्सामा यजेत के अतिरिक्त), जैसा कि पुरोडाश (रोटी) आदि की आहुति के विषय में ब्राह्मणों में उल्लेख पाया जाता है। सौर्य नामक विकृतियाग में “जो वैदिक ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना चाहता है उसे सूर्य को मात देना चाहिए" यह वाक्य विध्यादि है, किन्तु यहाँ कुछ भी विस्तार नहीं उपस्थित किया गया है । feat far की अपेक्षा-सी लगती है, यद्यपि यज्ञों के विषय में कतिपय विध्यन्त पाये जाते हैं, तथापि 'निर्वपति' नामक विशिष्ट शब्द दर्शपूर्णमास ( जिसमें निर्वापि पाया जाता है) की विधि का द्योतक है, और इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि आग्नेय ( दर्शपूर्णमास में प्रथमकृत्य) के समान ही सौर्य चरु की आहुति होती है । सभी अन्य इष्टियों में प्रकृति की सभी बातें तथैव की जाती हैं । एकाह एवं द्वादशाह नामक सोमयज्ञों में ज्योतिष्टोम प्रकृति है और इसकी सभी बातें सोमयज्ञों के सभी परिष्कृत रूपों (विकृतियों) में सम्पादित की जाती हैं, यथा अतिरात्र में । उन सभी यज्ञों में जिनमें पशुबलि होती है, अग्निषोमीय प्रकृति है, जिसकी बातें पशुयागों की सभी विकृतियों में सम्पादित की जाती हैं। द्वादशाह के दो प्रकार हैं, अहीन एवं सत्र और वह द्विरात्र, त्रिरात्र से लेकर शतरात्र तक के सभी अहीन यज्ञों की प्रकृति है; और सत्र की कोटि वाला द्वादशाह सभी सत्रों का एक नमूना (आदर्श) है । आदित्यानामयन के समान सभी यागों की प्रकृति गवामयन है । दर्वीहोम न तो यज्ञों की प्रकृतियाँ हैं और न विकृतियाँ । आठवें अध्याय में यही सब वर्णित हैं। नवें अध्याय में ऊह का विवेचन है । अतिदेश के सिद्धान्त के प्रयोग के सिलसिले में मन्त्रों, सामगानों एवं संस्कारों के विषय में कुछ परिवर्तनों एवं ऊहों की आवश्यकता पड़ती है । साधारणतः ऊह शब्द का अर्थ होता है तर्क या विचारणा, किन्तु पू० मी० सू० में इसका विशिष्ट अर्थ होता है । आग्नेय प्रकृति है जिसमें निर्वाप (आहुति ) “मैं अग्नि को वही अर्पित करता हूँ जो उन्हें प्रिय है" इन शब्दों के साथ किया जाता है। सौर्ययाग में, जो आग्नेय की विकृति है, निर्वाप (आहुति ) " जो सूर्य को प्रिय है वही मैं उन्हें अर्पित करता हूँ" शब्दों के साथ किया जाता है । वाजपेय में हम पढ़ते हैं- "वह सत्रह पात्रों में निर्वाप अन्नों को पका कर बृहस्पति को अर्पित करता है ।" वाजपेय दर्शपूर्णमास का एक परिष्कृत रूप है जिसमें चावल के कण जल के साथ छिड़के जाते हैं; अतः छिड़कना नीवार अन्नों पर भी किया जाता है ( पू० मी० सू० ६ |२| ४० ) ज्योतिष्टोम यज्ञ के दूसरे दिन सुब्रह्मण्य पुरोहित द्वारा इन्द्र को सम्बोधित सुब्रह्मण्या प्रार्थना का पाठ किया जाता है, जो यों है— 'इन्द्र आगच्छ, हरिव आगच्छ, मेधातिथेमेष ।' अग्निष्टुत् यज्ञ में भी अग्नि को सम्बोधित सुत्रह्मण्या-निगद है । पाठ करने में 'इन्द्र' के स्थान पर 'अग्ने' शब्द रख लिया जाता है, किन्तु उसके आगे के शब्द, यथा - 'हरिव आगच्छ' परिवर्तित नहीं किये जाते और उनका पाठ किया जाता है, क्योंकि वे वैसी उपाधियाँ हैं। जो अग्नि के लिए भी कही जाती हैं ( पू० मी० सू० ६ । १।४२-४४ ) । मीमांसकों ने जो सिद्धान्त निकाला है, वह ( जो केवल एक दिन तक चले, यथा - अग्निष्टोम ), अहीन ( जो एक से अधिक और अधिक से अधिक १२ दिनों तक चले) एवं सत्र (जो १२ दिनों से अधिक एक वर्ष या उससे भी अधिक काल तक चले ) कोटियों में बाँटा गया | शबर ( पृ० मी० सू० ४।४।२० ) ने चार महायज्ञों की चर्चा की है, यथा-- अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, ज्योति - ष्टोम, पिण्डपितृयज्ञ । गौतमधर्मसूत्र ( ८1१८ ) के अनुसार सात सोमयज्ञ होते हैं । इन श्रौत कृत्यों के अतिरिक्त गृह्यसूत्रों में अन्य कृत्यों का उल्लेख है जो गुह्याग्नि में किये जाते हैं। देखिए इस महाप्रन्थ का मूल खण्ड २, भाग २, पृ० १६३-१६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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