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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम
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है, तो वैसी स्थिति में वह मनोवांछित कृत्य सम्पादित करता हुआ नहीं समझा जायेगा, क्योंकि जो अयोग्य रूप में वर्जित है वह प्रतिनिधि नहीं हो सकता।४६
उपर्यवत न्याय पर मिताक्षरा ने याज्ञ० (२।१२६, जहाँ ऐसा आया है कि यदि संयुक्त कौटुम्बिक धन को कुछ सदस्य दबा लेते हैं या छिपा लेते हैं और इस प्रकार अपने लिए उसको रख लेते हैं, तो वह प्राप्त किये जाने पर, विभाजन के उपरान्त भी, बराबर भागों में बाँट दिया जाना चाहिए) की टीका करते हुए आधार रखा है और मत प्रकाशित किया है कि इस श्लोक से संयुक्त धन को छिपा रखने के पाप से यह कह कर छुटकारा नहीं प्राप्त हो सकता कि वह (छिपाने वाला) भी एक स्वामी था। मिताक्षरा ने व्याख्या की है कि जिस प्रकार कोई यजमान त्रुटिवश माष को मुद्ग समझ कर आहुति देने से यज्ञ के फल से वञ्चित हो जाता है, उसी प्रकार संयुक्त परिवार के धन को छिपा लेने वाला व्यक्ति अपराधी हो जाता है । व्यवहारप्रकाश (पृ० ५५५) एवं अपरार्क (पृ० ७३२) ने भी यही दृष्टिकोण अपनाया है, किन्तु दायभाग (१२।११-१३) एवं व्यवहाररत्नाकर (पृ० ५२६) ने इस मत का विरोध किया है (देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ३, पृ० ६३६)। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ० ४८२) ने इस न्याय पर एक विस्तृत टिप्पणी की है।
एक दूसरा नियम यह है कि यज्ञकर्ता का कोई प्रतिनिधि नहीं हो सकता (६।३।२१), क्योंकि ऐसी व्यवस्था (ज० ३।७।१८-२०) है कि कृत्य का फल स्वामी को प्राप्त होता है, भले ही वह प्रारम्भ करने के उपरान्त सभी कुछ अपने पुरोहित (जो कृत्य करने के लिए नियुक्त रहता है) पर छोड़ दे, इस विषय में एक अपवाद है जो सत्रों (जै०६।३।२२) से सम्बन्धित है, जिनमें बहुत-से व्यक्ति एक साथ कर्ता एवं पुरोहित के रूप में संलग्न रहते हैं।
एक महत्त्वपूर्ण अधिकरण है ६।७।३१-४०। 'विश्वसृजामयनम्' नामक एक सत्र होता है जो १००० संवत्सरों तक चलने वाला होता है । तै० ब्रा० (१।३।७।७ एवं १।३।६।२ : 'शतायुः पुरुषः'), कार्णाजिनि एवं लावुकायन के मतों की ओर संकेत करने के उपरान्त जैमिनि ने बड़े बल के साथ इस निष्कर्ष की स्थापना की है कि संवत्सर का यहाँ अर्थ है दिवस । देखिए इस महाग्रन्थ का मल खण्ड २, पृ० १२४६, पाद-टिप्पणी, जहाँ महाभाष्य के कथन की ओर निर्देश किया गया है कि याज्ञिक लोग इस प्रकार के सत्रों की चर्चा करते हुए प्राचीन ऋषियों द्वारा चलायी हुई परम्पराओं का ही अनुसरण करते हैं । मेधातिथि (मनु० ११८४: 'वेदोक्तमायुर्मानाम्') ने एक लम्बी टिप्पणी में जैमिनि के दृष्टिकोण की चर्चा की है और 'शतायुर्वं पुरुषः' एवं 'शतमिन्नु शरदो अन्ति देवाः' (ऋ० ११८६६) का उद्धरण दिया है तथा अन्य व्याख्याताओं के मत दिये हैं । कात्यायनश्रौतसूत्र (१।६।१७२७) ने इस विषय का विवेचन विस्तार के साथ किया है, भारद्वाज, कार्णाजिनि एवं लौगाक्षि की व्याख्याओं की विभिन्नता की ओर संकेत किया है तथा अन्त में यह मत प्रकाशित किया है कि संवत्सर का अर्थ है 'दिवस'।
४६. प्रतिषिद्धं चाविशेषेण हि तच्छ तिः। ६।३।२०; प्रतिषिद्धं च न प्रतिनिहितव्यमिति । अविशेषेण होतदुच्यते-न यज्ञार्हा माषा वरका कोद्रवाश्चेति । शबर। सूत्र की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है: 'प्रतिषिद्धं भाषादिकं न प्रतिनिधेयं यस्मात् अविशेषेण यशसम्बन्धमात्रे निषेधश्रुतिः। तै० सं० (५॥१८१) में 'अमेध्या वै माषाः' आया है। और देखिए इस महाग्रन्थ का मूल खण्ड ३, पृ० ६३७ एवं पाद-टिप्पणी १२०६ जहाँ जैमिनि का सूत्र एवं मिताक्षरा का उद्धरण दिया हुआ है।
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