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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास पू० मी० सू० के पांचवें अध्याय में क्रम का विवेचन है। क्रम वह है जिसके अनुसार किसी यज्ञ के विभिन्न भाग या कृत्य क्रमानुसार आते हैं । विधियाँ किसी यज्ञ में कई कर्मों के सम्पादन के विषय में बताती हैं, ये सदा यह नहीं बतातीं कि वे कर्म (प्रधान या गणभत) किस क्रम में किये जायेंगे। उनका क्रम यजमान की इच्छा पर निर्भर नहीं रहता। किसी यज्ञ के कृत्यों के क्रम को निश्चित करने के लिए छह साधनों पर निर्भर होना पड़ता है, यथा--श्रुति, अर्थ (उद्देश्य, योग्यता), पाठ (शाब्दिक वचन), प्रवृत्ति (आरम्भ ), काण्ड (वचन अथवा मल वचन का स्थान), मुख्य । किसी सूत्र में दीक्षा संबंधी वैदिक वचन के अनुसार अध्वर्य गहपति (यजमान) का दीक्षा-सम्पादन करने के पश्चात् ब्रह्मा पुरोहित की दीक्षा करता है और फिर उद्गाता आदि की दीक्षा करता है । यहाँ पर वैदिक बचन ने प्रत्यक्ष रूप से क्रम की व्यवस्था की है, यथा--यजमान (यज्ञ करने वाले) की दीक्षा के उपरान्त ब्रह्मा, तब उद्गाता आदि की दीक्षा होती है। 'समिधो यजति तननपातं यजति' आदि में वाक्यों का क्रम ही विभिन्न यागों के सम्पादन के क्रम को निश्चित करता है (पू० मी० स० ५।१।४) । वेद सर्वप्रथम अग्निहोत्र की बात करता है और तब यवाग (लपसी) पकाने की बात उठाता है। यहाँ पर अग्निहोत्र को प्रम में प्राप्त है और उसके उपरान्त यवाग पकाने को स्थान दिया गया है। किन्तु जब तक अपित किया जाने वाला पदार्थ बन न जाय अग्निहोत्र नहीं किया जा सकता। अत: यहाँ पर पाठक्रम को छोड़ देना पड़ेगा और अर्थक्रम (उद्देश्य तथा यथायोग्यता द्वारा घोषित क्रम) का अन सरण करना होगा, अर्थात् सर्वप्रथम यवाग बनानी होगी और तब अग्निहोत्र किया जायगा। यह एक ऐसा उदाहरण है जो यह प्रदर्शित करता है कि अर्थत्रम पाटनम से अपेक्षाकृत अधिक शक्तिशाली होता है (पू० मी० सू० (५।४।१)। पराशरस्मृति में ऐसी व्यवस्था दी हुई है कि प्रतिदिन सन्ध्या (प्रात:कालीन उपासना), स्नान, जप (पवित्र वचनों का मन ही मन पाठ), होम, वेदाध्ययन, देवता-पूजन, वैश्वदेव तथा आतिथ्य करने चाहिए । पराशरमाधवीय का कथन है४० कि पाठ के त्राम स्थान पर यथायोग्यता (क्या उचित है) का अनसरण करना चाहिए, अत: प्रथम स्नान होना चाहिए और तब सन्ध्या । स्मृतिचन्द्रिका ने वृद्धमनु को उद्धृत कर कहा है कि पुत्रहीन पवित्र विधवा को मृत पति के लिए पिण्ड देना चाहिए और उसकी सम्पदा ग्रहण करनी चाहिए । यहाँ पर ऐसा मानना उचित है कि वह पहले उसकी (पति की) सम्पदा ग्रहण कर ले और तब उसके श्राद्धों को करे। वाजपेय में ऐसा वचन आया है कि यम ३६. अग्निहोत्रं जुहोतीति पूर्वमाम्नातम्, ओदनं पचतीति पश्चात् । असम्भवात् पूर्वमोदनः पक्तव्यः । शबर (५॥१॥३)। और देखिए शबर (५।४।१ पर)। ४०. सन्ध्या स्नानं जपो होमो देवतातिथिपूजनम् । आतिथ्यं वैश्यदेवं च षट् कर्माणि दिने दिने ॥ पराशरस्मृति (११३६) । देखिए परा० मा० (११२।१८), जहाँ आया है--"सन्ध्यास्नानमित्यत्र यवागूपाकन्यायेन स्नानस्य प्राथम्यं व्याख्येयम्।... 'यवाग्वाग्निहोत्रं जुहोति यवागुं च पचति' इति श्रूयते । ... यवाग्वा इति तृतीयया श्रुत्या होमसाधनत्वावगमादसति च द्रव्ये होमनिष्पत्तेरर्थाद् यवागूपाकः पूर्वभावीति सिद्धान्तः । एवमत्रापि स्नानस्य शुद्धिहेतुत्वाच्छुद्धस्यैव सन्ध्यावन्दनाधिकारित्वात्स्नानं पूर्वभावीति द्रष्टव्यम् । वृद्ध-मन--अपुत्रा शयनं भर्तुः पालयन्ती व्रते स्थिता। पत्न्येव दद्यात्तत्पिण्डं कृत्स्नमंशं लमेत च ॥ और टिप्पणी भी की गयी है--'उत्तरार्धे त्वर्थक्रमेण पाठक्रमबाधो द्रष्टव्यः । ततश्चायमर्थः। उक्तलक्षणा पत्न्येव भत्रंशं कृत्स्नं लभेत पश्चात्पिण्डं दद्यात् । न पुनस्तस्यां सत्यां भात्रादिरिति । स्मृतिच० (२, पृ० २६१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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