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________________ धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम १६७ मान को प्रजापति के लिए यूप (यज्ञिय खुंटा, जिसमें बाँधकर बलि दी जाती है) में १७ पशु बाँधने चाहिए (ले० प्रा० १।३।४।२-३)। इसकी भी व्यवस्था है कि १७ पशुओं में प्रत्येक के साथ कई संस्कार किये जान चाहिए, यथा--प्रोक्षण (पवित्र जल छिड़कना), उपाकरण (पास लाना) । इन १७ पशुओं में किसी से भी कार्यारम्भ हो सकता है, अर्थात् किसी के साथ प्रथम संस्कार किया जा सकता है, किन्तु किसी पशु के साथ आरम्म कर दिये जाने पर अन्य संस्कार भी उसी के साथ हो जाने चाहिए; अर्थात् संस्कारों का क्रम किसी पशु पर आरम्भ किये जाने से निश्चित किया जाता है। काण्ड या स्थान का दृष्टान्त निम्नलिखित है। ज्योतिप्टोम एक आदर्श यज्ञ (प्रकृति) है, जिसका साद्यस्क एक विकृति है । साद्यस्क के विषय में वेद द्वारा यह व्यवस्था दी हुई है कि सभी पशओं की बलि सवनीय स्तर पर एक साथ होनी चाहिए। ज्योतिष्टोम में तीन पशुओं की बलि दी जाती है, यथा--प्रातःकाल 'अग्निषोमीय', मध्याह्न में 'सवनीय' एवं सायंकाल 'अनबन्ध्य' । साद्यस्क्र एक विकृति है, ये सभी बलि इसमें सम्पादित होती हैं; किन्तु इस विषय के विशिष्ट बचन ने व्यवस्था दी है कि तीनों की बलि एक साथ सवनीय स्तर पर होनी चाहिए। किन्तु यह (तीनों का साथ किया जाना) असम्भव है इसीलिए यही किया जा सकता है कि इन तीनों का सम्पादन एक के उपरान्त एक के रूप में ही किया जा सकता है (न कि दिन के विभिन्न कालों में) । प्रथम दष्टि में ऐसा लगेगा कि अग्नीपोमीय पश का स्थान सर्वप्रथम होगा, किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि साद्यस्क्रयाग में सवनीय स्तर पर एक के उपरान्त एक बलि के क्रम में सर्वप्रथम सवनीय पश की बलि होगी (अग्नीषोमीय की नहीं) और उसके उपरान्त अग्नीपोमीय की और उसके तुरन्त उपरान्त अनबन्ध्य की या अन्तिम दो की बलि किसी भी क्रम में हो सकती है। मुख्य (प्रथम या प्रधान) द्वारा निश्चित अनुक्रम का एक उदाहरण यों है--'दो सारस्वत हवियां दी जाने वाली हैं, वास्तव में यह दिव्य मिथुन (जोड़ा) है। यह एक श्रुतिवचन है। सरस्वती एवं सारस्वत की आहुतियों के विषय में सविस्तार वर्णन मिलता है। सन्देह यों उपस्थित होता है क्या नारी देवता को दी जाने वाली आहुतियाँ पहले होती हैं या वे सर्वप्रथम पुरुष देवता को दी जाने वाली आहुतियां हैं ? प्रथम दृष्टि में तो ऐसा लगता है कि पहले किसके लिए प्रथमता दी जाय, इस विषय में शास्त्र मक है, अत: जो जैसा चाहे करे । ४१. सारस्वतौ भवत एतद्वै दैव्यं मिथुनं दैव्यमेवास्मै मिथुनं मध्यतो दधाति पुष्टये प्रजननाय। ते० सं० (२।४।६।१-२)। यह चित्रायाग के सम्बन्ध में उल्लिखित है, जिसमें सात गौण आहुतियाँ व्यवस्थित हैं, जिनमें दो सारस्वत कहलाती हैं। 'सारस्वती' का अर्थ है 'सरस्वतीदेवताकः सरस्वदेवताकश्चेत्युभी सारस्वतौ।' पू० मी० सू० में आया है-मुल्यक्रमेण वांगानां तदर्थत्वात्' (५।१।१४)। याज्ञवल्क्य (२।१३५) ने पुत्रहीन व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त उसकी पत्नी, पुत्री एवं माता-पिता (पितरौ) को उसका उत्तराधिकारी माना है। मान लीजिए कोई व्यक्ति अपने पिता एवं माता के जीते ही मर जाता है तो ऐसी स्थिति में किसको उत्तराधिकार मिलेगा? क्या माता को पिता से वरीयता मिलेगी या पिता को माता से, या दोनों को सम्पत्ति का बराबर भाग मिलेगा ? मिताक्षरा ने माता को वरीयता दी है, स्मृतिचन्द्रिका ने 'सारस्वतौ भवतः' के उदाहरण की ओर निर्देश किया है और दोनों में किसको प्रमुखता दी जाय, इसके विषय में सम्मति दी है कि बृहविष्णु जैसी स्मृतियों के अनुसार सर्वप्रथम पिता को अधिकार प्राप्त होता है। दायभाग ने माता की अपेक्षा पिता को वरीयता प्रदान की है और व्यवहारप्रकाश (पृ० ५२४), मदनरत्न (पृ० ३६४) जैसे कतिपय ग्रन्थों ने भी ऐसा ही कहा है। देखिए स्मृतिबन्द्रिका (२, पृ० २६७)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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