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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्यारया के नियम
१६५ पुनः तप्त दूध में डालना होगा, किन्तु यदि वाजिन (जो प्रयोजक नहीं है) नष्ट हो जाय तो दही को पुनः तप्त दूध में डालने की आवश्यकता नहीं है।
'पुरुषार्थ' कर्मों के उदाहरण गत अध्याय (२६) में दिये जा चुके हैं, यथा-प्रजापतिव्रत । पूर्व-मीमांसासत्र के चौथे अध्याय में (दूसरे पाद में) प्रतिपत्तिकर्म एवं अर्थकर्म के कतिपय दृष्टान्त उपस्थित किये गये हैं। बहुत से ऐसे द्रव्य, प्रसाधन ( संस्कार ) एवं सहकारी कर्म होते हैं जिनके साथ फल सम्बन्धित रहता है। उदाहरणार्थ , ऐसा कहा गया है (ले० सं० ३।७।५।२ में) 'जिसकी जुहु पर्ण (पलाश) की लकड़ी की बनी होती है, वह अपने विषय में कोई बुरा अथवा हानिप्रद शब्द नहीं सुनता' ; 'यह कि वह (अपनी आँखों में) अञ्जन लगाता है, वह अपने शत्रु की आँख को हानि पहुंचाता है' (तै० सं० ६।१।११५); 'यह कि वह प्रयाजों
पादन करता है, वह, सचमुच यज्ञ का कवच है।' पू० मी० स० ने घोषित किया है कि द्रव्यों, प्रसाधनों (संस्कारों) एवं सहायक कर्मों से सम्बन्धित फल विषयक वचन, वास्तव में फलों की विधियाँ नहीं हैं, प्रत्युत वे केवल अर्थवाद हैं, क्योंकि वे सभी प्रधान ऋतु के उद्देश्य की पूर्ति करते हैं ।
यह चौथा अध्याय (तीसरा पाद) यह निश्चित करता है कि यद्यपि विश्वजित् यज्ञ के सम्पादन के लिए श्रुति (वेद) द्वारा कोई फल स्पष्ट रूप से घोषित नहीं है, तथापि विश्वजित् यज्ञ में (जैसा उन यज्ञों में होता है, जहाँ फल स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है) फल स्वर्ग की प्राप्ति है।३८
विश्वजित वह विलक्षण यज्ञ है जिसमें यजमान अपना सब कुछ दान कर देता है ('विश्वजिति सर्वस्वं ददाति')। जैमिनि ने इसके विषय में चौदह अधिकरण बनाये हैं , कुछ मनोरंजक प्रमेय ये हैं-यजमान अपने सम्बन्धियों (यथा पिता या माता) का दान नहीं कर सकता, वह केवल उसी व जिसका वह स्वामी होता है; यहाँ तक कि सम्राट अपने सम्पूर्ण साम्राज्य का दान नहीं कर सकता, क्योंकि अन्य व्यक्ति भमि पर अधिकार रखते हैं और राजा लोगों की रक्षा करता है और केवल भमि की उपज के किसी अंश का अधिकारी होता है। यजमान अश्वों का दान नहीं कर सकता, क्योंकि श्रुति ने स्पष्ट रूप से विश्वजित् में घोड़ों के दान को अमान्य ठहराया है । यजमान केवल उसी सम्पत्ति का दान कर सकता है जो यज्ञ में दक्षिणा देने के समय उसकी अपनी हो, न कि उस सम्पत्ति का जो भविष्य में उसकी होने वाली हो। वह शुद्र भी जो यजमान की सेवा करता है (मन के मतानुसार सेवा करना उसका धर्म है) दान में नहीं दिया जा सकता। केवल उसी को विश्वजित् यज्ञ करने का अधिकार है जिसके पास १२० या इससे अधिक गायें हों।
३६. तस्मादाभिक्षा प्रयोक्त्री वाजिनमप्रयोजकमिति । शबर (३।१।२३) । यद्युभयं प्रयोजकं वाजिन नष्टे पुनस्तप्ते पयसि दध्यानेतव्यम् । अथ वाजिनमप्रयोजकं नष्टे वाजिने लोपो दध्यानयनस्य । शबर (४।१।२४)।
३७. द्रव्यसंस्कारकर्मसु परार्थत्वात्फलश्रुतिरर्थवादः स्यात् । पू० मी० सू० (४।३।१०); शबर ने तीन वचन उद्धृत किये हैं—'यस्य पर्णमयो जुहूर्भवति न स पापं श्लोकं शृणोति (द्रव्य), यदाङक्ते...चक्षुरेव भातृव्यस्य वडते (संस्कार), यत्प्रयाजानयाजा इज्यन्ते वर्म वा एतद्यज्ञस्य क्रियते (कर्म)।
३८. स स्वर्गः स्यात्सर्वान्प्रत्यविशिष्टत्वात् । पू० मी० सू० (४।३।१५)। सर्वान् का अर्थ है सर्वपुरुषान् । शबर ने व्याख्या की है--'सर्वे हि पुरुषाः स्वर्गकामाः। कुत एतत् । प्रोतिहि स्वर्गः। सर्वश्च प्रोति प्रार्थयते ।; मेधातिथि (मनु २१२) ने इसकी ओर संकेत किया है। देखिए परा० मा० (१११, पृ० १४८) । विष्णुपुराण (२।६।४६) में आया है-'मनःप्रीतिकरो स्वर्गो नरकस्तद्विपर्ययः। नरकस्वर्गसंज्ञे वै पुण्यपापे द्विजोत्तम ॥
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