SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 211
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ {ed धर्मशास्त्र का इतिहास होगा । इसी प्रकार वाक्य का प्रकरण तथा अन्य दो साधनों से विरोध हो सकता है, प्रकरण का स्थान या समाख्या से तथा स्थान का समाख्या से विरोध हो सकता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि छह साधनों के अपने में १५ प्रकार के विरोध हो सकते हैं । इन छह साधनों में प्रत्येक के अपने पूर्ववर्ती साधनों के विरोध पर हमें ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि ऐसा कहना कि लिंग श्रुति के विरोध में पड़ता है, वैसा ही है जैसा कि यह कहना कि श्रुति लिंग के विरोध में पड़ती है । स्थानाभाव से इस प्रकरण को हम यहीं छोड़ते हैं, क्योंकि इन सभी प्रकार के १५ विरोध- दृष्टान्तों को वेद एवं धर्मशास्त्र ग्रन्थों से उदाहरण देकर समझाने में एक लम्बा आख्यान उपस्थित हो जायगा । धर्मशास्त्र ग्रन्थ बलाबल नामक अधिकरण (पू० मी० सू० ३ | ३|१४ ) का बहुधा प्रयोग करते हैं । उदाहरणार्थ, पराशरमाधवीय (१1१, पृ० २६८ - २६६) ने एक श्रुति-वचन उद्धृत किया है कि प्रत्येक व्यक्ति को सायंकालीन आह्निक सन्ध्या वरुण को सम्बोधित मन्त्रों के साथ आदित्य-पूजा के रूप में करनी चाहिए तथा टिप्पणी की है कि वारुणीभिः' (ऐन्द्रया के समान) केवल लिंग है किन्तु 'आदित्यमुपस्थाय' श्रुति ( प्रत्यक्ष वचन ) है, इसलिए सायंकाल में वरुण को सम्बोधित मन्त्रों के साथ सूर्य (आदित्य) की पूजा की जानी चाहिए, और अपने कथन की पुष्टि के लिए 'ऐन्द्रया गार्हपत्यम् उपतिष्ठते' के दृष्टान्त की ओर संकेत किया है । ३४ पू० मी० सू० के चौथे अध्याय में मुख्यतः प्रयोज्य एवं प्रयोजक तथा क्रत्वर्थ एवं पुरुषार्थ के विषय का विवेचन पाया जाता है । ऋत्वर्थ एवं पुरुषार्थ के विषय में हमने पहले ही गत अध्याय में पढ़ लिया है। प्रथम दो के कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं । प्रयाजों को ऋत्वर्थ घोषित किया गया । अतः ऋतु (यज्ञ) प्रयाजों का प्रयोजक ( प्रेरणात्मक शक्ति ) है । फल ( यथा स्वर्ग आदि) को याग ( अर्थात् पुरुषार्थ क्रिया) का प्रयोजक कहा जाता है । वही प्रयोजक होता है जिसके लिए व्यक्ति वैदिक स्तुतिवचन द्वारा कुछ सम्पादित करता है। वाक्य यों है-- 'स्वर्ग की प्राप्ति के लिए दर्शपूर्णमास यज्ञ करना चाहिए' अतः फल (स्वर्ग आदि) को दर्शपूर्णमास-याग का प्रयोजक कहा जायगा । 34 दूध में दही मिलाने की व्यवस्था से व्यक्ति को आमिक्षा उत्पन्न करने की प्रेरणा मिलती है न कि वाजिन बनाने की । क्योंकि वाजिन तो आमिक्षा की उत्पत्ति पर स्वतः उत्पन्न होता है । अतः आमिक्षा, जो वैश्वदेवयाग में हवि होती है, वैश्वदेवयाग का प्रयोजक है किन्तु वाजिन याग को दूध में दही डालने का प्रयोजक नहीं कहा जा सकता ( पू० मी० सू० ४।१।२२ - २४ ) । परिणाम यह होता है, यदि संयोग से आमिक्षा नष्ट हो जाय तो हवि (आमिक्षा) की प्राप्ति के लिए दही को ३४. वारुणीभिस्तथादित्यमुपस्थाय प्रदक्षिणम् । यद्यपि वारुणीभिर्वरुणस्योपस्थानं लिंगबलात् प्राप्तं तथापि श्रुतेः प्राबल्यात् तथा लिंगं बाधित्वा आदित्योपस्थाने एव विनियुज्यते । परा० मा० (१।१, पृ० २६८-२६६) । पराशर० ने 'इमं मे वरुण' (ऋ० १।२५।१६-२० ) को बारुणी मन्त्रों के रूप में लिया है। ३५. मिलाइए शबर ( पू० मी० सू० ४।१।१ : अथातः क्रत्वर्थपुरुषार्थयो जिज्ञासा) : 'यापि प्रयोजकाप्रयोजकफलविध्यर्थवादा लिंगप्रधान चिन्ता सापि ऋत्वर्थपुरुषार्थजिज्ञासैव । कथम् । अंगं क्रत्वर्थः प्रधानं पुरुषार्थः । फलविधिः पुरुषार्थः, अर्थवादः क्रत्वर्थः । प्रयोजकः कश्चित्पुरुषार्थोऽप्रयोजकः ऋत्वर्थः । तस्मात्क्रत्वर्थपुरुषार्थयो जिज्ञासेति सूचितम् • ऋतवे यः स ऋत्वर्थः, पुरुषाय यः स पुरुषार्थः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy