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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धांत एवं नयख्या के नियम वाजिन, ये दोनों दो स्पष्ट अर्पण हैं) २७; (५) प्रकरण (संदर्भ) । 'अग्निहोत्र करना चाहिए' (त० सं० ११५६१) में अग्निहोत्र के अह्निक सम्पादन की विधि पायी जाती है। कुण्डपायिनामयन में ऐसा आया है-'वह एक मास तक अग्निहोत्र करता है।' यह वचन दूसरे संदर्भ में आता है (जब कि पहला दर्शपूर्णमास के संदर्भ में
त: यह वाक्य (अर्थात् कण्डपायिनामयन वाला) आह्निक अग्निहोत्र से भिन्न कर्म है। (६) संज्ञा (अर्थात T) भी कर्मों का अन्तर बताती है, क्योंकि वे (कर्म) उत्पत्तिवाक्य (मौलिक व्यवस्था) में प्रकट होते हैं । कर्मों की भिन्नता प्रकट करने का यह ढंग हेमाद्रि, कालनिर्णय एवं निर्णयसिन्धु द्वारा प्रयुक्त हुआ है. इसी ढंग द्वारा उन्होंने इस विषय में निर्णय किया है कि जन्माष्टमी व्रत एवं जयन्तीव्रत एक ही व्रत है या भिन्न व्रत हैं।
हमने यह देख लिया है कि विधियों के चार प्रकार हैं, जिनमें एक है विनियोग विधि, जो किसी प्रमख धार्मिक कर्म एवं उसके अंगों के सम्बन्ध पर प्रकाश डालती है। प्रमख कर्म को शेषी या अंगी कहा जाता है। यह बात पू० मी० सू० के तीसरे अध्याय में उल्लिखित है। पू० मी० सू० ने सर्वप्रथम 'शेष' की परिभाषा की है और बताया है कि यह ऐसा क्यों कहा जाता है और इसे धार्मिक कर्मों में क्यों प्रयक्त किया जाता है ; इतना ही नहीं, वहाँ यह भी बताया गया है कि शेष और शेषी के सम्बन्ध को निश्चित करने के साधन क्या होते हैं और उन साधनों की तुलनात्मक शक्ति को कैसे जाना जा सकता है।
अब हम अंग एवं अंगी के कुछ दृष्टान्त उपस्थित करते हैं। बीहीन् प्रोक्षति' (चावलों पर जल छिड़कता है) में प्रोक्षण (छिड़कना) चावलों का अंग है (अर्थात् वह चावल के सम्बन्ध में गौण सम्बन्ध रखता है), जैसा कि कर्मकारक (व्रीहीन् ) से प्रकट है। प्रोक्षण से अपूर्व फल की प्राप्ति में सहायता मिलती है, क्योंकि चावलों पर बिना जल छिड़कने से यदि याग किया जाय तो अपूर्व की प्राप्ति नहीं होगी। दूसरा दृष्टान्त है- “वह ऋत की लगाम पकड़ ली' नामक मन्त्र के साथ घोड़े की रशना (लगाम) पकड़ता है"।२८ यहाँ पर 'रशनाम' में कर्मकारक द्वारा प्रदर्शित है कि मन्त्र का स्थान गौण है, वह अश्व की रशना का अंग है, क्योंकि लगाम पकडते समय उसका उच्चारण (मन्त्र का उच्चारण) लगाम में एक संस्कार का प्रभाव छोड़ जाता है तथा (लगाम का) पकड़ना घोड़े की लगाम का एक अंग है। (जो कर्मकारक में है)। यह उसी प्रकार है जैसा कि प्रोक्षण चावल के अन्नों का अंग है।
२७. तप्ते पयसि दध्यानयति सा, वैश्वदेव्यामिक्षा वाजिम्यो वाजिनम्। ; शबर ने (४।१।२३ पर) इसे उद्धृत किया है और कहा है : 'आमिक्षायां दधिपयसी विद्यते न वाजिने। ... वाजिने तिक्तकटुको रसः।' वैश्व देवी एक तद्धित है और उसका अर्थ है विश्वदेवा, देवता, अस्याः, जो पाणिनि के सूत्र ४।२।२४ (सास्यदेवता) के अनुसार बना है। वाजिनामिक्षारूपगुणभेदाद्वाजिनद्रव्यकंकर्मान्तरम्। आमिक्षाद्रव्यकं च कर्मान्तरमिति चिन्तितम् । वाजिनं नामामिक्षोत्पत्तिशिष्टमुदकम् । आमिक्षा नाम पयोदधि मिश्रण जनितं दृढाकारं द्रव्यम् । सर्वदर्शनकौमुदी (५० १००, त्रिवन्दरम् संस्कृत सीरीज़)। शंकराचार्य ने बेदान्तसूत्र (३।३।१) में इसे उल्लिखित किया है। ते० प्रा० (१।६।२।५) में आया है : 'वैश्वदेव्यामिक्षा भवति। वैश्वदेव्यो वै प्रजाः ।...वाजिनमानयति ।' आमिक्षा तप्त दूध में बही डालने का प्रयोजक है, किन्तु वाजिन प्रयोजक नहीं है, क्योंकि आमिक्षा की उत्पत्ति में वह स्वयं प्रकट हो जाता है।
२८. 'इमामगृभ्णन् रशानांमृतस्य इत्यश्वाभिधानीमादत्ते':-यह त० सं० (५॥१॥२॥१) में आया है। - 'इमामगृभ्णन रशानामृतस्य' नामक शब्द तै० सं० (४।१।२।१) के मन्त्र का एक-चौथाई है।
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