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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास यह पहले ही कहा जा चुका है कि 'शेष' का अर्थ है 'जो दूसरे के प्रयोजन को सिद्ध करता है। और यह उस दूसरे का शेष है ( पू० मी० सू० ३।१।२ : 'शेपः परार्थत्वात् ' ) तथा बादरि ( ३|१|३ ) के अनुसार 'उन द्रव्यों, गुणों (यथा किसी गाय का लाल रंग एवं संस्कारों (जो किसी व्यक्ति या वस्तु को याग या किसी अन्य उद्देश्य के लिए योग्य बनाते हैं) के लिए 'शेप' शब्द सदैव प्रयुक्त होता है, किन्तु जैमिनि ( ३१४-६ ) के मत से धार्मिक कृत्य फल या परिणाम के लिए शेष हैं, फल धार्मिक कृत्य करने वाले के लिए शेष है तथा कर्ता कुछ कर्मों के लिए शेष है। धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में 'शेष' शब्द बहुधा आया है । उदाहर णार्थ, मिता ने याज्ञ० (२।११८ - ११६) की टीका करते हुए कहा है कि १९८वें श्लोक का पूर्वार्ध पूरे प्रकरण का शेष (अंग ) [ है ( अर्थात् वह श्लोक के शेष अर्थात् बचे अंश के प्रयोजन को सिद्ध करता है ) । इसका परिणाम ( यदि मिताक्षरा की बात मान ली जाय ) यह है कि यदि किसी दायाद या रिक्थोधिकारी को किसी अनुगृहीत मित्र से, जिसे कुल सम्पदा के व्यय से आभारी किया गया था, भेंट प्राप्त हो, यदि किसी सदस्य के श्वसुर से, जिसे उस सदस्य की वधू के लिए कुल सम्पत्ति का कुछ भाग दिया गया था, कोई दान प्राप्त हो, या कोई डूबी हुई सम्पत्ति किसी सदस्य द्वारा अन्य पैतृक सम्पत्ति से प्राप्त की गयी या यदि किसी सदस्य ने कुल सम्पत्ति द्वारा विद्याध्ययन करने के उपरान्त विद्याज्ञान द्वारा कुछ लाभ पाया, तो इस प्रकार की सम्पदाएँ सभी सदस्यों में अवश्य विभाजिन होनी चाहिए | किन्तु मिताक्षरा के इस दृष्टिकोण को दायभाग ( ६ | ११८ ) एवं विश्वरूप ऐसे ग्रन्थों एवं लेखकों ने अमान्य ठहराया है। देखिए इस महाग्रन्थ के खण्ड-३ के पृ० ५७६ - ५८० । विनियोग विधियों के सम्वन्ध में प्राय: यह निर्णय नहीं हो पाता कि उनमें कौन प्रमुख हैं, कौन गुणभूत अथवा सहकारी हैं। इसी प्रकार कभी-कभी विरोध उपस्थित हो जाता है या सन्देह उत्पन्न हो जाता है। इन सब बातों को निश्चित करने के लिए पूर्व मीमांसा सूत्र ने ६ प्रकार के साधनों का उल्लेख किया है, यथा -- श्रुति (सीधे ढंग के वैदिक वक्तव्य या वचन), लिंग ( अप्रत्यक्ष संकेत ), वाक्य वाक्य रचना सम्बन्धी सम्बन्ध ) प्रकरण ( संदर्भ ), स्थान ( स्थान या अनुक्रम) एवं समाख्या ( संज्ञा या नाम ) । जब इनमें से कई एक साथ हो जाते हैं और एक ही विषय की ओर निर्देश करते हैं तो प्रत्येक आने वाला अपने पूर्व वाले से दुर्बल होता है, क्योंकि प्रत्येक आगे आने वाला अपने से पीछे वाले से अपेक्षाकृत अर्थ के संबंध से अधिक दूर होता है । पू०मी० सू० ( ३।३।१४ ) को 'वलाबलाधिकरण' कहा जाता है । ३५ २६. संस्कारो नाम सभवति यस्मिञ्जाते पदार्थो भवति योग्यः कस्यचिदर्थस्य । तेनापि क्रियायां कर्तव्याया प्रयोजनमिति सोपि परार्थः । शबर ( पू० मी० सू० ३।१।३ ) ; तथा संस्कारोप्यव इन्त्यादि र्या गसाधन पुरोडाशादि निवृत्तये चोदितां व्रीह्यादीनां स्वरूपेणायोग्यत्वादवहतानां योग्यत्वमायादयनुत्पत्त्यैवाङ्गं भवतीति । तन्त्रवा० ( पृ० ६६० ) । ३०. अत्र च पितृद्रव्याविरोधेन यत्कचित्स्वयमर्जिततमिति सर्वशेषः । तथा पितृद्रव्याविरोधेनेत्यस्थ सर्वशेषत्वादेव पितृद्रव्याविरोधेन प्रतिग्रह लब्धमपि विभजनीयम् । मिताक्षरा (याज्ञ० २।११८ - ११६ ) । ३१. श्रुतिलिंगवाक्यप्रकरणस्थानसमाख्यानां समवाये पारदौर्बल्यमर्थविप्रकर्षात् । पू० मी० सू० ( ३।३।१४) में समवाय का अर्थ है एकार्थोपनिपात । तन्त्रवार्तिक में आया है : 'समानविषयत्वं हि समवायोऽभिधीयते' और उसमें जोड़ा गया है : 'न ह्येकत्र सम्भवमात्रं समवायः किं तहिविषयकत्वम्' ( पृ० ८२२) एवं तस्माद्विरोध विषयमेव समवायग्रहणम् (१० ८२३ ) ; दुर्बलस्य भावः दौर्बल्यम् अरस्य दौर्बल्यं परदौर्बल्यं तदेव पार दौर्बल्यम्; विप्रकर्ष का तात्पर्य है विलम्ब; शास्त्रदीपिका ने इस सूत्र पर टिप्पणी दी है : 'इदानीं श्रुत्यादीनामेक विषय समवायेन विरोधे सति बलाबलं विचार्यते ।' Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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