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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास जब कतिपय वाक्यों के बीच विभिन्न प्रकार (कोटि) के शब्द आ जाते हैं तो अनुषंग का सिद्धान्त लागू नहीं होता। उदाहरणार्थ, जब अर्पित किया जाने वाला पशु मारा जाता है तो एक लम्बी उक्ति कही जाती है जिसमें ये शब्द आते हैं--'सं ते प्राणो वायुना गच्छन्तं सं यजत्रैरङ्गानि , सं यज्ञपतिराशिषा' आदि (तुम्हारे अंग पूजनीय देवताओं से जुड़ जायें, और यजमान आशिष से संयुक्त हो जाये. . . ) । यहाँ पर पहला वाक्य तीसरे वाक्य से उस वाक्य द्वारा पृथक किया गया है जिसमें दो शब्द बहुवचन में हैं और पहले एवं तीसरे वाक्य के दो शब्द एकवचन में हैं; अत: प्रथम वाक्य के शब्दों का दूसरे वाक्य में कोई अनुषंग नहीं है और तीसरे वाक्य के अर्थ को पूर्ण करने के लिए प्रचलित भाषा के किसी सामान्य शब्द का उपयोग किया जा सकता है (किन्तु प्रथम वाक्य के शब्दों का नहीं ) । वेद ने बहुत से कर्मों की व्यवस्था की है, यथा-याग का सम्पादन , अग्नि में हवि डालना , दान देना, गाय दुहना, घत पिघलाना आदि । किन्तु ये सभी कर्म एक ही कोटि के नहीं हैं, कुछ तो प्रध और कुछ गुणभत (या सहकारी)।२५ वैसे कर्म, जो 'प्रयाज' ऐसे शब्दों से दर्शित होते हैं, जिनसे अलंकृत नहीं किया जाता या योग्य नहीं बनाया जाता या उत्पन्न नहीं किया जाता, वे प्रधान कहे जाते हैं, किन्तु जो कर्म कोई द्रव्य उत्पन्न करते हैं, उसे योग्य बनाते हैं (यथा धान कूटकर चावल निकालना) वे गणभत कहे जाते हैं। कर्मों को पुनः कई कोटियों में बाँटा गया है. यथा--नित्य, नैमित्तिक, काम्य, अथवा ऋत्वर्थ एवं पुरुषार्थ । इस पर हमने गत अध्याय में ही विचार कर लिया है। कर्मों की भिन्नता एवं अभिन्नता की जाँच के ६ साधन हैं-यथा (१) शब्दान्तर (भिन्न शब्द , जैसे--यजति , जुहोति, ददाति, अर्थात् याग, होम एवं दान भिन्न कर्म हैं); (२) अभ्यास (दुहराना),२६ जैसा कि 'समिधो जयति तनूनपातं यजति' आदि (०सं०२।६।११-२) में, जहाँ पर 'यजति' शब्द पाँच बार दुहराया गया है और इसीलिए पाँच प्रकार के कर्म व्यवस्थित किये गये हैं; (३) संख्या जैसा कि 'वह प्रजापति के लिए १७ पशुओं की बलि देता है (त. वा० १३१४१३)' जो स्पष्टत: १७ कर्म हैं; (४) गण (सहकारी विस्तार, यथा 'जव तप्त दुग्ध में दही डाला जाता है तो वह 'आमिक्षा' हो जाता है जो वैश्वदेवों को अर्पित किया जाता है और वह द्रव पदार्थ जो वाजियों को दिया जाता है, वाजिन कहा जाता है' नामक वचन में देवता या द्रव्य , आमिक्षा एवं २५. तानि द्वैधं गुण प्रधानभूतानि। यैव्यं न चिकीर्घ्यते तानि प्रधानभूतानि द्रव्यस्य गुणभूतत्वात् । यस्तु द्रव्यं चिकीर्ण्यते गुणस्तत्र प्रतीयेत तस्य द्रव्यप्रधानत्वात् । पू० मी० सू० (२।१६-८)। २६. तदिह षड्विधः कर्मभेदो वक्ष्यते-शब्दान्तर, अभ्यासः, संख्या, गुणः, प्रक्रिया, नामधेयमिति ।...तदेतन्नानाकर्मलक्षमित्यध्यायमाचक्षते...। शबर (पू० मी० सू० २।१।१: 'भावार्थाः कर्मशब्दास्तेभ्यः क्रिया प्रतीयेतैष ह्यर्थो विधीयते।')। ये सभी पू० मी० सू० में वर्णित हैं, यथा-२।२।१७, २।२।२ (अभ्यास), २।२।२१ (संख्या), २।२।२३ (गुण), २।२।२२ (नामधेय या संज्ञा), तथा २।३।२४ (प्रकरण या प्रक्रिया) । शबर ने इनको एक क्रम में उल्लिखित किया है, किन्तु पू० मी० सू० ने थोड़ी भिन्नता के साथ इनका उल्लेख किया है। पराशर (११३८,) ने कहा है कि व्यक्ति को ६ कर्मों पर ध्यान देना चाहिए, यथा-स्नान, सन्ध्या आदि पर और उन्होंने शब्दान्तर पर निर्भर करके यह स्थापित किया है कि ६ विभिन्न कर्म होते हैं कि सभी एक में समाहित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002793
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages452
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size16 MB
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