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धर्मशास्त्र से सम्बन्धित मीमांसासिद्धान्त एवं व्याख्या के नियम बातों के लिए पृथक विधि की व्यवस्था करनी होगी)। दूसरी ओर, यदि एक ही वाक्य में कतिपय गौण विषयों के साथ कोई कर्म, द्रव्य या गण व्यवस्थित हो तो वहाँ कोई वाक्यभेद का दोष न होगा, अर्थात् एक ही वाक्यं में, चाहे वह कितना भी लम्बा क्यों न हो या उसमें बहुत-से विषय हों, यदि वहाँ एक ही विधि है तो कोई दोष नहीं होता। 'भूतिकाम (भूति अर्थात् समृद्धि के इच्छुक ) को चाहिए कि वह वायु के लिए श्वेत पशु की बलि दे' नामक बाक्य में यदि यह माना जाय कि पहले फल के रूप में भूति (ऐश्वर्य या समृद्धि) के लिए कोई विधि होनी चाहिए, तो दो विधियाँ उत्पन्न हो जायेगी और वाक्यभेद उठ खड़ा होगा, किन्तु यदि यह माना जाय कि विधि का सम्बन्ध केवल श्वेत पश के अर्पण से है और उसके उपरान्त जो आता है, यथा 'वायवै क्षेपिष्ठा... मति गमयति' वह केवल अर्थवाद (पहले कही गयी विधि की स्तुति) है तो वहाँ वाक्यभेद नहीं होगा। वाक्यभेद तभी उठ खड़ा होता है जब एक ही वाक्य में एक से अधिक विधियाँ मान ली जाती हैं। २२
वाक्यभेद के सिद्धान्त के प्रकाशनार्थ कुछ दप्टान्त दिये जा रहे हैं। एक सरल दृष्टान्त यह है---'ग्रहं सम्माष्टि'। यदि इसका एक अर्थ यह लगाया जाय कि 'उसे प्याले को स्वच्छ करना है और साथ-ही-साथ यह भी अर्थ लगाया जाय कि केवल एक ही प्याला स्वच्छ करना है, तो यहाँ वाक्यभेद हो जायगा। इसीलिए यह तय किया गया कि 'ग्रह' में जो एक वचन है उस पर ध्यान न दिया जाय, प्रत्युत सभी ग्रहों (प्यालों) के स्वच्छ करने की बात पर आरूढ़ रहना चाहिए, नहीं तो दो विधियाँ उठ खड़ी होंगी, यथा-'ग्रह सम्मज्यात्' एवं 'एकमेव सम्मज्यात्' । शबर ने पू० मी० सू० (१।३।३) पर एक श्रुति उद्धत की है----'पुत्रवान् एवं काले केश वाले को वैदिक अग्नियाँ प्रज्वलित करनी चाहिए'। श्रुतिवचनों द्वारा अग्न्याधान की व्यवस्था की गयी है, यथा तै० ब्रा० (१।१।२।६), शतपथ ब्राह्मण (२।१।२) । अत: उपर्युक्त वचन ने केवल कुछ सहायक विषयों की व्यवस्था इसके लिए की है। एक व्यक्ति काले केशों के साथ पुत्रहीन भी हो सकता है या पुत्रवान् व्यक्ति श्वेत केशों वाला हो सकता है। अत: यदि वह वाक्य दोनों गुणों की व्यवस्था करने वाला समझा जाय (अर्थात् पुत्रवान् होना तथा काले केश वाला होना) तो एक ही वाक्य में दो विधियाँ स्पष्ट लक्षित हो उठेगी, अर्थात वहाँ वाक्यभेद उठ खड़ा होगा, जिसका परित्याग आवश्यक है। अत: इस वाक्य को किसी निश्चित अवस्था को बताने वाला समझा जाना चाहिए, अर्थात् उसे (व्यक्ति को) अग्न्याधान के समय बालक नहीं होना चाहिए, प्रत्युत ऐसी अवस्था का होना चाहिए कि उसे पुत्र उत्पन्न हो सके, और न उसे बहुत बूढ़ा (जव केश श्वेत हो जाते हैं) होना चाहिए । अर्थात् उसे अग्न्याधान के काल में न तो अति बालक और न अति बूढ़ा होना चाहिए । 'जातपुत्रः' एवं 'कृष्णकेशः' में लक्षणा भी मानी जाती है, और लक्षणा शब्द-दोषों में गिनी जाती है किन्तु वाक्यभेद वाक्यदोषों में गिना जाता है। अत: लक्षणा तथा वाक्यभेद की तुलना में लक्षणा को ग्रहण करना चाहिए। व्यवहारमयूख (पृ० ११५) ने मन (।१४२) को उद्धृत किया है-'जो पुत्र गोद रूप में दे दिया जाता है उसे कुल का नाम (गोत्र) नहीं प्राप्त होगा और न वह अपने वास्तविक पिता का रिक्थ ही प्राप्त कर सकेगा; पिण्ड (जो मृत पुरुषों को दिया जाता है) कुलनाम एवं रिक्थ का अनुसरण करता है। जो अपने पुत्र को गोद के लिए दे देता है उसकी स्वधा (जहाँ तक उस पुत्र का सम्बन्ध है) समाप्त हो जाती है।' उपर्युक्त वचन (पुत्रवान् कृष्णकेश व्यक्ति...) तथा वेदिका के संदर्भ में यज्ञिय यूप के स्थान के सम्बन्ध में एक अन्य उक्ति (देखिए पू० मी० सू० ३।७।१३-१४) को
२२. बहवोऽपि ह्या युगपदेकेन सम्बन्ध्यन्ते । न च तावता वाक्यं भिद्यते। अनेकविधितो हि वाक्यभेद उक्तः। तन्त्रवार्तिक (पृ० ५५१, पू० मी० सू० २।२।२६ पर)।
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