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धर्मशास्त्र का इतिहास उद्धृत करके व्यवहारमयूख ने मत प्रकाशित किया है कि मनु द्वारा प्रयुक्त गोत्र, रिक्थ, पिण्ड एवं स्वधा शब्दों पर ही बल नहीं देना चाहिए और न उन्हें शाब्दिक अर्थ में ही लेना चाहिए, प्रत्युत ऐसा समझना चाहिए कि मनु के इलोक में लक्षणा है; उसमें उन सभी परिणामों की ओर संकेत है जो वास्तविक पिता के विषय में पिण्ड से सम्बन्धित हैं, तथा मनु ने उस सम्पत्ति के विषय में कुछ भी नहीं कहा है जिसे पुत्र दूसरे कुल में गोद लिये जाने के पूर्व ग्रहण किये रहता है।
वाक्यभेद के विषय में एक अन्य उदाहरण पुनर्मिलन-सम्बन्धी व्यवहार (कानन) से लिया जा सकता है। मिता०, दायभाग एवं स्मृतिच० (व्यवहार० पृ० ३०२) ने बृहस्पति की उक्ति २३ उद्धृत की है--'वह व्यक्ति, जो एक बार अपने पिता, भाई या चाचा से पृथक् हो जाने के उपरान्त पुन: स्नेह के कारण उनके (या उनमें किसी के साथ ) साथ रहने लगता है, वह उनके (या उसके) साथ संसृष्ट (फिर से मिला हुआ) कहा जाता है।' मिताक्षरा के मत से संसृष्टता केवल पिता, भाई एवं चाचा के साथ ही सम्भव है, अन्य से नहीं, क्योंकि बृहस्पति की उवित में कोई अन्य नहीं उल्लिखित है। किन्तु व्यवहारमयूख ने इस सीमा को स्वीकार नहीं किया है और कहा है कि संसप्टता अथवा पुनर्मिलन उन सभी के या उनमें किसी के भी साथ सम्भव है जिन्होंने विभाजन में भाग लिया है और पिता, भाई एवं चाचा, ये तीनों केबल उदाहरण के लिए उल्लिखित हैं । अर्थात् यहाँ लक्षणा है) एक व्यक्ति केवल इन्हीं तीन व्यक्तियों (पिता, भाई एवं चाचा) से अलग नहीं हो सकता, प्रत्यत वह अपने पितामह, पितामह के पौत्र, अपने चाचा के पूत्र तथा कतिपय अन्य लोगों से भी अलग हो सकता है। अत: मिताक्षरा ने बृहस्पति की उक्ति को जिस रूप में निर्मित माना है वह वाक्यभेद के दोष से पूर्ण है, क्योंकि उस व्याख्या से दो पृथक् उपपत्तियाँ (प्रमेय) उठ खड़े होते हैं, यथा-(१) उस व्यक्ति को संसृप्ट (पुनर्मिलन को प्राप्त हुआ) कहा जाता है जो विभक्त हो जाने (अलग हो जाने) के उपरान्त पुन: उसके साथ संस्थित रहता है जिससे वह पहले अलग हो गया था, (२) केवल पिता, भाई या चाचा से ही पुनः मिला जा सकता है। अत: इस प्रकार एक वाक्य में दो एथक एवं स्पष्ट प्रमेय आ उपस्थित होते हैं। अत: लक्षणा का आश्रय लेना चाहिए, यथा-तीन उल्लिखित व्यक्ति उस व्यक्ति-वर्ग के हैं जिनसे एक व्यक्ति अलग हो सका था किन्तु वह एक समय उनके साथ रहता था। वीरमित्रोदय (व्यवहार) आदि ने व्यवहारमयख के मत का समर्थन किया है ।
स्मृतिचन्द्रिका की व्यवस्था है कि एक व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त जब उसके पुत्र वटवारा करते हैं तो माता को भी, यदि सम्पत्ति (सम्पदा, रिवथ , दाय, विभव या भूमि) बहुत लम्बी-चौड़ी या अधिक न हो, तो प्रत्येक पुत्र के समान अंश प्राप्त होता है, किन्तु यदि सम्पदा बहुत अधिक हो तो उसे उतना मिलना चाहिए जो उसकी जीविका के लिए आवश्यक है। किन्तु (याज्ञ० २।१२३ एवं अन्य स्मृतियों ने 'समं अंशम्' ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है।) मदनरत्त ने (व्यवहार पर) उस मत की आलोचना की है और उसे दोषयक्त व्यवस्था की संज्ञा दी है , क्योंकि विभक्त होने वाली सम्पदा के अधिक या कम होने वाली स्थिति के अनुसार 'सम अंशम्' (बराबर अंश या भाग) से सम्बन्धित अर्थ के बारे में दो विभिन्न विधियाँ उठ खड़ी हो जायेंगी।
२३. विभक्तं धनं पुनर्मिश्रीकृतं संसृष्टं तदस्यास्तीति संसृष्टी । संसृष्त्वं च न येन केनापि किन्तु पित्रा भ्रात्रा पितृव्येण वा । यथाह बृहस्पतिः । विभक्तो यः पुनः पित्रा भात्रा वैकत्र संस्थितः । पितृव्येणाथ वा प्रीत्या स तत्संसृष्ट उच्यते ॥ मिता० (याज्ञ २।१३८) । दायभाग (१२ वाँ अध्याय) ने बृहस्पति को उद्धृत कर टि-पणी दी है : 'परिगणित व्यतिरिक्तेषु संसर्गकृतो विशेषो नादरणीयः परिगणनानर्थक्यात् ।'
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